आओ आज दो पल बैठ कर, कुछ गुफ़्तगू कर ले,
कुछ थोड़ा सुन ले, कुछ थोड़ा समझ ले......
इस मौसम-ए-सर्मा को दिल में उतार लें।
हिज्र के मौसम की इस पहली सुबह,
क़िताब के उन सक्त पन्नों में दबे उस कुम्हलाए फूल से, सुन ले उस दिन की वो दास्तान....
जो दबी की दबी रह गई.
घंटों ख़ुद की आँखों में देखते हुए, आओ आज पूछ लें आइने से वो पहेलियाँ,
जो अनसुलझी ही रह गईं।
चलो घूम आए उन बेज़ार सड़कों पर, कभी जो तेरे-मेरे कदमों की आहट से गूंजती थी,
खुशबूओ के दरमियाँ बैठ, कैसे मान ले, कि दिल की ज़मी पर इस बार पतझड़ नें दस्तक दी है,
मान भी कैसे ले कि बहार की रूत उसके जाने के साथ जा चुकी हैं....
प्यार में बार बार कुचले जाने वाला फूल, क़िताब मे पड़े रहने पर, आज भी इंतज़ार की खुशबू से बरकरार हैं।
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