एक तरह तो यह है कि
जो है मै उसमे खुश रही,पर उस अंतर्मन को कैसे नकार दू,,
जो यह कहता है.. नहीं ,,तुम इसके लिए नहीं बनी
दिख जाता है सबको मेरे चेहरे की हंसी!
मेरे कोरे मन के पन्ने.....
पर कैसे छिपाऊं उनको
जो दिखे है मुझको ,,हर रोज मेरी आंखों में!!
मैं एक अच्छी बेटी ,अच्छी बहन ,अच्छी बीवी... तो बन रही हूं!!
पर क्यूं नहीं बन पा रही वो,जो मै खुद के लिए बनना चाहती हूं।
ये पीड़ा, यह दर्द ,यह घुटन कब तक संभालू इनका बोझ!
क्यूं नहीं हो पाती उस नाव में सवार जिसकी खिवैया बन
मैं वहां शामिल हो सकूं ,जहां चाहती हूं, पहुंचनाl
मैं कह तो देती हूं ,मुस्कुराकर है, कि मैं सहमत हूं
हर किसी से!!
पर खुद के अंदर की असहमति को लाद लेती हूं फिर से।
कैसे निकलूं ,कैसे फिस्लू,,अब कैसे मैं चलूं। मेरे अंदर जो है वो कोई क्यूं नहीं समझता !!!??
क्यूं मैं हर बार गलत,गलत गलत होती हूं!!
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