दादा,
पिछली बार चिट्ठी में माँ से तुम्हारा ख्याल पूछा था । अपनी बातचीत कम होती है । पर जितनी होती है बढ़िया ही होती है । काम की बात समझ लेते हो आप । वही ज़रूरी है । बचपन से काफी खुराफात साथ में की है । आज ये खुराफ़ात अकेले करूँगा । याद रखने को है बहुत कुछ । पर दुगुना लिख दूंगा । यादें बयाँ कर देता । पर अपने दुनिया भर के जुगाड़ कैसे बताऊंगा ?
एक तो तुम्हारी पुरानी किताबें पढ़ने की आदत हो गयी थी । कभी कॉलेज में नयी किताब ही नहीं ली । सब सेकंड हैंड क्योंकि नयी किताब पढ़ते ही नहीं हम । फिर अपने अंदरूनी मज़ाक समझ नहीं सकते लोगों को, क्योंकि हँसी नहीं रुकती । एक बात और बोलूँगा, अभी कुछ समय पहले समझ आयी है । तुम्हारे क्लास में अव्वल आने पर मैं खुश होता था । इसलिए नहीं के नयी किताबें आएँगी घर, बल्कि इसलिए के अब और बहुत कुछ सीखने को मिलेगा । अगर मैं कहीं रुक गया, थम गया, तो भाई है मेरा ! अव्वल आया है ! वही सब सम्हाल लेगा । आज लिखना रुका नहीं है, क्योंकि आपकी कुंजियों ने हाथ पकड़ कर कलम घिसना सिखा दिया । ये जो समझदारी है वो भी आप ही से सीखी है, और बेवकूफी भी ।
२ साल से स्काइप पर ही ज़्यादा बातचीत होती है । आप पर गुस्सा भी आप ही का सोच कर करता हूँ । बचपन से दादा बुला रहा हूँ आगे भी वही बुलाऊँगा । बस एक दिन मैं भी इतना समझदार हो जाऊँ के कोई मेरी ख़ुशी में इतना ही खुश हो ।
तुम्हारा भाई,
-