रात को हमराज़, दिन को गद्दार लिखा
तेरे बगैर जो शाम आई उसे, बेकार लिखा।
जब दर्द के सेहरा से गुज़र कर ठहरे
तब दर्द की रंगत को, गुलज़ार लिखा।
लहू मज़लूमो का हर तरफ बहता रहा
इंकलाब को मुंसिफों ने, इंतजार लिखा।
रो पड़े सब कहनी थी ऐसी दास्तान
आईना देख कर फिर हमने, बेज़ार लिखा।
कौन अब इस शहर से वासता रखें ‘जमाल‘
कत्लगाहों को यहां सब ने , बाज़ार लिखा।
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