20 AUG 2017 AT 23:04

न जाने क्या ये मन ज़िन्दगी से चाहता है,
के हर एक पल इक नया आसमां मांगता है।

पांव तो हैं ज़मीं पर ही,
फ़िर क्यों फ़लक चूमना चाहता है,
न जाने क्या ये मन ज़िन्दगी से चाहता है,
के हर एक पल इक नया आसमां मांगता है।

क़ैद हैं जो बन्द दरवाजो में ख़्वाहिशें,
उन ख़्वाहिशों में जुनून के पंख जोड़ना चाहता है,
न जाने क्या ये मन ज़िन्दगी से चाहता है,
के हर एक पल इक नया आसमां मांगता है।

जो खो गए रास्तों में हमसफ़र तो क्या,
हमराह नए उन्हीं रास्तों से ढूंढ लाता है,
न जाने क्या ये मन ज़िन्दगी से चाहता है,
के हर एक पल इक नया आसमां मांगता है।

राबता था जिन तारों से, ग़ुम गए,
के रूबरू इक नया आफ़ताब आता है,
न जाने क्या ये मन ज़िन्दगी से चाहता है,
के हर एक पल इक नया आसमां मांगता है।

जो कहते थे हमदर्द खुद को, झूठे थे,
जो है पहलू में, बस वही साथ निभाता है,
के जाने क्या ये मन ज़िन्दगी से चाहता है,
शायद सुकून भरी बेचैनी पाने को ललचाता है।

- आस्था