ये कैसे ज़माने में आ गए हम, की खुशियों को भी काटते हैं;
ये मेरे मज़हब की खुशी, ये तेरे धर्म की हसी, क्यों छांटते हैं?
मिलने दो बच्चों को चॉकलेट, बर्फी, मिठाई, खिलौने;
अब इन में भी क्या मज़हब मापते है?
इंसानियत संतो का धर्म, यही पुरखों ने बतलाया था;
यूं ही नहीं काशी में हुआ वो संत, जात से जो जुलाहा था।
चादर प्रीत री बुन न पाए, उसने बड़ा समझाया था;
बहरे ही सुन न पाए, बाज़ार में खड़ा, कबीरा तो चिल्लाया था।
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