Asim Ragini Mathur   (अज़ीम_the cyber poet©)
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Joined 28 April 2017

28 DEC 2022 AT 14:16

अपनी बेजारी को क्या बयां करू;
की हर ज़र्रा मुझे झुठलाता है.
क्या हासिल किया ये सोचा करू;
बातिल हर चीज़ को ए "अज़ीम" तेरा दिल बतलाता है...

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28 DEC 2022 AT 14:14

जाबीं-साईं हु मैं उसके सदके में;
दहानाह से बस उसकी मौसूफ़ निकलती है;
महफूज़ कर ले मेरा खस्ताह-दिल ए "अज़ीम"
ये बाद-ए-समून तो अब भी चलती है!

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28 DEC 2022 AT 14:10

आबिद हु मैं, आफत-ऐ-जान नहीं;
आइना हु दावर का,शैतान नहीं.
मेरी आज़माइश न कर ए "अज़ीम";
मैं बशर हु, लामकां नहीं.

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28 DEC 2022 AT 14:07

कब तक तनहइयो में जश्न मानोगे?
कभी तो "महफ़िल" में आओ.....
कब तक यूँ ही ज़माने से डरते रह जाओगे ?
कभी तो खुल कर दिल लगाओ....
कब तक मन ही में रखोगे मोहब्बत को?
कभी तो हमे भी बताओ....

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28 DEC 2022 AT 13:59

बड़ी तेज़ सी है ज़िन्दगी...
दो पल रुक कर तो दीदार-ए-मोहब्बत करो...
मर तो तुम यों भी जाओगे... कुछ नहीं तो...

प्यार कर के मरो...

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28 DEC 2022 AT 13:52

खामोश सा बैठा... अपने कमरे के एक कोने में...
न जाने क्या खोज रहा था मैं....
मायने ज़िन्दगी के भूल...

फ़ुर्सत ढुन्ढ रहा था शायद....
फ़ुर्सत.... द्फ़तर की पेचिदा पह्चान मिटाने की....
या उस ही में नाम कमा लेने की....
फ़ुर्सत.... माँ को फ़ोन लगाने की...
या फ़िर उन्हें "डिस्ट्र्ब" न कर दु... इस गुत्थी को सुलझाने की.....
फ़ुर्सत.... पापा को कुछ बात केह जाने की...
और उन से फ़िर दुनिया की दुनियादारी समझ पाने की....
बहुत खोजा पर मिल नहीं रही है.....
आप को मिली क्या?

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28 DEC 2022 AT 13:48

बहुत देर से चुभ रही है फांस ये,
तेरा खामोशी की....
कुछ मरहम तेरी आवाज़ का ,
लग जाए अगर, मेरे ज़ख्मों पर...
तो सुकून मिले ज़रा सा।

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28 DEC 2022 AT 13:42

शिफ़ा–ए–जिंदगी यूं तो कोरा ही दिखता है,
पर लकीर सी दिख जाती है,
कभी कभी, तसव्वुर में बहुत कुछ लिख देता हूं इस कागज़ पे, मगर हर वक्त दिखती है,
कोरी सी एक जिंदगी।

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28 DEC 2022 AT 13:34

चलो इस बार ऐसी दिवाली मनाए

जब मन उम्मीद के दिए जलाए;
जब दिल किसी अंजान की खुशी पे मुस्काए....

जब बिना वजह डांस करने को दिल ललचाए;
जब दोस्तो को याद कर आंखे भर जाए

जब मां बेसन की चक्की अपने हाथ से बनाकर खिलाए
और पापा, पिस्ते बादाम की पोटली भर लाए

जब बहन आंगन में रंगोली सजाए,
और भाई आतिशबाज़ी की ज़िद करता जाए

जब दूर बैठ कर भी साथ होने का एहसास हो जाए,
और अकेले भी किसी के पास होने का यकीन आ जाए...
जब दिए की रोशनी से दिल–ओ–जेहन भी रोशन हो जाए...

चलो इस बार ऐसी दिवाली मनाए।

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24 DEC 2022 AT 20:28

ये कैसे ज़माने में आ गए हम, की खुशियों को भी काटते हैं;
ये मेरे मज़हब की खुशी, ये तेरे धर्म की हसी, क्यों छांटते हैं?

मिलने दो बच्चों को चॉकलेट, बर्फी, मिठाई, खिलौने;
अब इन में भी क्या मज़हब मापते है?

इंसानियत संतो का धर्म, यही पुरखों ने बतलाया था;
यूं ही नहीं काशी में हुआ वो संत, जात से जो जुलाहा था।

चादर प्रीत री बुन न पाए, उसने बड़ा समझाया था;
बहरे ही सुन न पाए, बाज़ार में खड़ा, कबीरा तो चिल्लाया था।

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