रोमन हिंदी पर विचार:
एक नई भाषा गढ़ी गई, उसकी एक लिपि बनी और लंबा सफ़र तय करते हुए वो करोड़ों लोगों तक जा पहुंची। एक बनी-बनाई और स्थापित चीज़ को बढ़ावा देना तो इसके मुक़ाबले कहीं आसान होना चाहिए। क्या किसी दूसरी (और ज़्यादा प्रचलित) लिपि को अपना लिया जाना ही इकलौता हल है? और, क्या ये सच नहीं है कि हिंदी के लिए "चिंताजनक" माने जा रहे इस दौर तक पहुंचने के बावजूद देश में एक बहुत बड़ा तबक़ा है, जिसके लिए अंग्रेज़ी एक थोपी हुई भाषा है, जिसे सीखना "पड़ता" है?
अगर हिंदी सचमुच मिटने की कगार पर है और अंग्रेज़ीदां लोग बहुतायत में हैं भी, तो इस बदलाव के जो कारण रहे हैं, वो लिपि बदलने के बाद भी बरक़रार ही तो रहेंगे! अगर हिंदी रोज़गार का ज़रिया नहीं बन सकती तो रोमन हिंदी भी नहीं बनेगी। जो लोग अपने बच्चों को हिंदी पढ़ाना ज़रूरी नहीं समझते, वो रोमन में भी नहीं पढ़ाना चाहेंगे। भाषा को बचाने की कोशिश तब होती, जब लोग उसे छोड़ रहे होते। हमारे यहां छुड़वाई जा रही है। कहा जा रहा है कि उसमें स्कोप नहीं है। और पलटकर ये नहीं पूछा जा रहा कि जब इतने सारे बोलने-समझने वाले हैं तो क्यों स्कोप नहीं है? दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा में काम करने वालों का स्कोप नहीं है, इतना बड़ा झूठ आम सहमति पा गया है। ऐसे में आकर बताना कि लिपि नहीं बदली तो रहा-सहा स्कोप भी न रहेगा, इस झूठ का नॉर्मलाइज़ेशन नहीं तो और क्या है?
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