Ashutosh Tiwari   (आशुतोष तिवारी 'हर्फ़')
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Joined 2 July 2017


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14 MAY 2020 AT 15:19

ये तो बता जांबाज़ शनावर क्या मिलता है
ख़ुद को किनारे तक पहुंचाकर क्या मिलता है

पूछ रहे हैं अपनी तलाश में फिरने वाले
सबको अपना आप गंवाकर क्या मिलता है

जब भी दर खोलूं एक राह नज़र आती है
इस जीवन में इससे सुंदर क्या मिलता है

होश का भी कुछ दख़्ल यहां दरकार है प्यारे
सिर्फ़ जुनून-ए-शौक़ के दम पर क्या मिलता है

देखो ज़रा ता-हद्द-ए-नज़र और ध्यान से सोचो
जो हासिल है उससे बढ़कर क्या मिलता है

आज भी मिट्टी भीगे तो ख़ुशबू आएगी
धूप में इस एहसास से बेहतर क्या मिलता है

कब तक ताला खोलने में यूं उलझे रहेंगे
आ देखें संदूक के बाहर क्या मिलता है

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23 APR 2019 AT 15:28

जहाँ जाकर सफ़र की कश्मकश ही ख़त्म हो जाये
मैं ऐसी मंज़िलों से ठीक पहले लौट आता हूँ

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29 MAR 2019 AT 18:22

जो प्यासे लिख रहे थे जीत का उन्वान पानी में
बहाकर आ रहे हैं अब सर-ओ-सामान पानी में

उठा तूफ़ां तो एक कश्ती सहारा देने आती थी
तभी तैराक जाकर गिर पड़ा नादान पानी में

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9 MAR 2019 AT 11:40

इक नदी जंगलों बीहड़ों और पहाड़ों से होकर परेशान गुज़री
इक समंदर है जिसके बिना इस सफ़र को मुकम्मल न मानेगा कोई

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29 APR 2018 AT 13:23

तैयार हो ? (अनुशीर्षक में)

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18 JAN 2022 AT 13:38

बेताब न हो यार ज़रा वक़्त लगेगा
क़ायम तो हैं आसार ज़रा वक़्त लगेगा

अव्वल तो हमें दूरी का अंदाज़ा नहीं था
रस्ता भी है दुश्वार ज़रा वक़्त लगेगा

ऐ रौनक़-ए-दुनिया अभी गुज़री तो नहीं उम्र
हम होंगे तलबगार ज़रा वक़्त लगेगा

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3 JAN 2022 AT 22:02

रोमन हिंदी पर विचार:

एक नई भाषा गढ़ी गई, उसकी एक लिपि बनी और लंबा सफ़र तय करते हुए वो करोड़ों लोगों तक जा पहुंची। एक बनी-बनाई और स्थापित चीज़ को बढ़ावा देना तो इसके मुक़ाबले कहीं आसान होना चाहिए। क्या किसी दूसरी (और ज़्यादा प्रचलित) लिपि को अपना लिया जाना ही इकलौता हल है? और, क्या ये सच नहीं है कि हिंदी के लिए "चिंताजनक" माने जा रहे इस दौर तक पहुंचने के बावजूद देश में एक बहुत बड़ा तबक़ा है, जिसके लिए अंग्रेज़ी एक थोपी हुई भाषा है, जिसे सीखना "पड़ता" है?

अगर हिंदी सचमुच मिटने की कगार पर है और अंग्रेज़ीदां लोग बहुतायत में हैं भी, तो इस बदलाव के जो कारण रहे हैं, वो लिपि बदलने के बाद भी बरक़रार ही तो रहेंगे! अगर हिंदी रोज़गार का ज़रिया नहीं बन सकती तो रोमन हिंदी भी नहीं बनेगी। जो लोग अपने बच्चों को हिंदी पढ़ाना ज़रूरी नहीं समझते, वो रोमन में भी नहीं पढ़ाना चाहेंगे। भाषा को बचाने की कोशिश तब होती, जब लोग उसे छोड़ रहे होते। हमारे यहां छुड़वाई जा रही है। कहा जा रहा है कि उसमें स्कोप नहीं है। और पलटकर ये नहीं पूछा जा रहा कि जब इतने सारे बोलने-समझने वाले हैं तो क्यों स्कोप नहीं है? दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा में काम करने वालों का स्कोप नहीं है, इतना बड़ा झूठ आम सहमति पा गया है। ऐसे में आकर बताना कि लिपि नहीं बदली तो रहा-सहा स्कोप भी न रहेगा, इस झूठ का नॉर्मलाइज़ेशन नहीं तो और क्या है?

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18 DEC 2021 AT 0:45

दोस्त को जगजीत की आवाज़ पसंद थी, इसलिए ग़ालिब की ग़ज़लें भी निर्विरोध सुन लेता। एक दिन कौतूहल लेकर आया, "बेहिस माने?" मैंने बताया, "संवेदनहीन... जिसे महसूस न हो।" आज दोस्त याद आया तो ग़ालिब का शेर भी याद आया।
हुआ जब ग़म से यूं बेहिस तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पर धरा होता

ये भी याद आया कि उर्दू के 'ज़ानू' और संस्कृत के 'जानु' का अर्थ एक है। तब याद आया बचपन। क्लास में अकेला था जिसे गोपालप्रसाद व्यास की कविता "ख़ूनी हस्ताक्षर" याद। इम्प्रेशन ही ग़ज़ब। "छिहत्तर लाइन के कविता याद बा एकरा!"

आजानु बाहु ऊंची करके वे बोले रक्त मुझे देना
इसके बदले में भारत की आज़ादी तुम मुझसे लेना

फिर याद आए पापा। "आजानु बाहु मतलब घुटनों तक आने वाले हाथ। मेधावी और साहसी लोगों के होते हैं। श्रीराम के भी थे। आजानु भुज शर चाप धरि..." मैं चाहने लगा था घुटनों तक आने वाले हाथ...

...अब याद आ रहा है, चाहना

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29 NOV 2021 AT 18:09

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26 NOV 2021 AT 23:23

ज्ञान, कम-से-कम अपनी शैशवावस्था में, सर्वमान्य सिद्धान्त गढ़ने की ललक लिए होता ही है। एक उर्वर बुद्धि का यह आग्रह स्वाभाविक होगा कि दूसरे उसका अनुसरण करें।

लेकिन समय के साथ यह दंभ मिटना चाहिए। ऐसा नहीं होता है तो जानें कि ज्ञान ठहर गया। कि कलकल धारा का प्रवाह थमा। तालाब बन गया। बाड़ाबंदी हो चली। अब दूषित होता जाएगा सब संचय।

इस अभिशाप से सचेत रहें। दूसरों के लिए नियम बनाने से बचें।

सिवाय कलह और कोलाहल, कोई उपज नहीं।

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