Ashutosh Sharma   (आशुतोष शर्मा 'सारांश')
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Joined 13 February 2017


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25 JUN 2022 AT 9:45

चारो ओर प्रलय करता है,
खुद को जब निर्भय करता है।।

तीन टांग वाला चेतक भी,
लम्बी दूरी तय करता है।।

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31 DEC 2021 AT 23:53

जितना जिसने जाना समझा, हमने वो अपनाया
सब किरदारों से बढ़कर अपना किरदार निभाया।

मुश्किल हो चाहे आसां हों, ये मार्ग समर्पण का है
हमने बदला समय, हमें ये समय बदल ना पाया।।

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26 DEC 2021 AT 0:38

जिस दिन तुम थे मिले मुझे गंगा के बहते नीर किनारे,
उस दिन आखिर, मुझ को अपना एक निवेदन,
कहना तो था!

अर्ध्य लगाकर तन्मयता से सूरज के सब प्रतिबिम्बों को,
हमको तुम संग ना रहकर भी हर क्षण तुम संग,
रहना तो था !

अनवरत.......!

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19 DEC 2021 AT 18:40

यकीनन , आपसे पूछा करेंगे,
हमें भी क्या पता हम क्या करेंगें,

तुम्हें दर दर भटकना ना पड़ेगा,
तेरी चौखट को हम सजदा करेंगे ।

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15 DEC 2021 AT 23:58

जितना जाने उतना छीना,
कसमें खाना वादे पीना,

समझे तुम ये बात कभी ना,
तुम संग जीना, कैसा जीना?

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24 NOV 2021 AT 20:13

क्या! मुश्किल है?
इस जीवन को वक्र भाग को सरल सरल सा जीते जाना
महासमर के अंतिम क्षण तक एक दूजे का साथ निभाना
भवसागर के तट पर 'विजय' शब्द को अंकित करके जाना
नियति की सारी पीड़ाऐं  हंसते हंसते हल कर जाना
एक हृदय का दूजे मन से दूजा भाव मिटाते जाना

क्या! मुश्किल है?

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9 OCT 2021 AT 23:03

सदा सदा से रहते आये है हम बड़े अभागे,
इसीलिए हे मुरलीधर! अब हमसे वचन न मांगे।

ये राजमहल के वैभव और धन धान्य मान मर्यादा,
हमने त्यागा है प्रण के खातिर इन सबको ज्यादा।

ये शब्द बचाने के खातिर हम युगों युगों तक जागे।
इसीलिए हे मुरलीधर अब हमसे वचन न मांगे।

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6 OCT 2021 AT 22:56

उड़ जा पाखी छोड़ सभी ये दुनिया के दस्तूर,
निकल जा खुद से थोड़ा दूर...!

देख सभी ये कंकड़ माटी तेरी राह निहारे,
फूल झड़े ये निर्झर उपवन प्रतिपल तुझे पुकारे।

तुझे देखने को व्याकुल है कुंठित सभी दशाएं,
तुझे जानने को आतुर है जग की सभी दिशाएं।

परिणीत हो इस परिणय में बन जा तू सिंदूर,
निकल जा खुद से थोड़ा दूर....!

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6 OCT 2021 AT 22:41

मेरे अंदर के कईं सारे 'मै'
और
तुम्हारे अंदर के बहुत से 'तुम'
बात करते है।
और
हमें लगता है कि
'हम' बात करते है।

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27 SEP 2021 AT 13:24

नूतन पल्लव और किसलय का,
वसुधा के पावन परिणय का,
अल्पकाल का ये सुंदर क्षण,
महाकल्प है एक समय का,

सब प्रश्नों से एक प्रश्न कर,
उड़ा भ्रमर फिर सुंदर वन में,
मन से आखिर कौन बड़ा है,
जड़ता भरे सकल जीवन में,

आखर सब निस्तेज खड़े है,
मौन अधर की तन्मयता में,
जीवन का सब सार छिपा है,
जगती के कण कण की ममता में।।

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