13 JUL 2017 AT 22:09

ख़ामोश लोगों का इक शहर देखा है
भीड़ में भी सुनसान मंज़र देखा है

हैवान का डर नहीं लगता अब मुझे
कुछ रोज़ मैंने इंसानी कहर देखा है

बेइंतहा नफ़रत, नापाक इरादे लिए
रूह तक फैलता इक जहर देखा है

महज़ कौम के नाम गले काट दे जो
बाज़ार में मुफ़्त है, वो खंज़र देखा है

जिसे दरीचों के लुत्फ़ का शौक है
उस शख्श को फेंकते पत्थर देखा है

बहोत तड़पती हैं राख होके रूहें
मैंने लाशों के गले लग कर देखा है

मेरा ज़मीर अब चिल्ला के रोता है
हां मैंने झांक के अपने अंदर देखा है।।

- ख़ाक