अर्यमा मिश्रा   (अर्चि)
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Joined 28 December 2016


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Joined 28 December 2016

the journey might be filled
with numerous ups and downs,
but if you have decided
and have the right map to
proceed in desired direction
you must go on and on.
for the roads are waiting for you
one step at a time,
they are already there
my friend it's your turn to
shine a light of courage
on here and now
and make way.

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सुनो सखी,
अपने स्वभाव की प्रासंगिकता किसी अन्य के समक्ष साबित करने की आवश्यकता नहीं है तुम्हें। जब तक वह स्वभाव ना ही तुम्हारी प्रगति की राह में रुकावट बन रहा और ना ही दूसरों के लिए कष्टकारी है, तब तक तुम निःसंकोच उसे जी सकती हो।
अवांछित सलाह देने वालों का क्या है, वे तो पतझड़ में उड़ते सूखे पत्तों सरीखे होते हैं, कभी भी कहीं से भी हमारे समक्ष आ गिरते हैं। फूँक मारो और अपने ध्येय की ओर आगे बढ़ो।

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कभी मैं ओस की बूंद,
तो कभी मैं प्रचंड तूफान।
कभी मैं शांत झील सी
कभी मैं विशाल समंदर।
कभी मैं हूँ एक कस्तूरी मृग
तो कभी मैं व्याग्र शेरनी।
कभी मैं नन्ही कोपल
कभी तो मैं वट वृक्ष सी।
कभी मैं सुलझी सुबह
कभी मैं उलझन भरी शाम।
कभी मैं वसंत की बयार
कभी मैं सर्दी की घाम।
कभी मैं सौम्य सफेद
तो कभी मैं सूर्ख लाल।
कभी मैं पिंजरे की बुलबुल,
और कभी मैं आजाद परिंदा।

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मैंने हमेशा से चाहा है कि
हमारे रिश्ते की धुरी,
हमारी आँखों में बसा
एक दूजे के लिए
परस्पर सम्मान हो,
फिर जिंदगी की शाम साझा हो
हर सुबह प्रेम से हो रौशन।
मेरा यह प्रेम नाजुक हो सकता है,
कई तरीकों से अतिरेक हो सकता है,
पर विश्वास रखो,
यह बाँधेगा नहीं तुम्हें।
हमारे प्रेम की नींव में
सान्निध्य के साथ स्वतंत्रता होगी।
वह प्रेम जिसे जी कर
हम बेहतर, सुंदर और सरल बनेंगे।
तुम्हारे साथ बुनी यादें, हमारे मध्य बाँटी गयी बातें,
इनसे जिंदगी बोझिल नहीं, गुलजार होगी।

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स्नेहिल हृदया
बिखेरती प्रतिपल खुशियाँ,
शक्ति का अंबार
संभालती हमारा संसार,
साहस की सहेली
सुलझाती जीवन की हर पहेली,
सुरभित विचारों की पुँज
पवित्र आत्मा की गूँज,
साक्षात सरस्वती की अनुकृति
प्रेरित तुमसे मेरी प्रकृति,
मेरे विचारों की वसुंधरा
मेरे व्यक्तित्व की आधारशिला;
मेरी माँ।

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बेतरतीब बिखरे सवालों और
भावमय झंझावातों के मध्य
प्रकृति की गोद में बुने
मौन की कविता निराली

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भय से न तुम मात खाना
बिन किये नियमित अभ्यास,
कर्मभूमि से न लौट आना
बिन किये अंतिम उचित प्रयास।
शिखर की राह तुम्हारी है
राह की कमाई है आत्मविश्वास।
घड़ी की टिक टिक साक्षी है
समय लेगा निर्धारित उड़ान,
विचार मग्न क्यों ठहरी हो
उठाओ कलम, लिखो अपनी पहचान।

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कितनी आसानी से कोई दूसरा व्यक्ति आपके लिए आकलन कर लेता है कि फलना काम तुमसे नहीं हो पाएगा या अमुक विषय पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए तुम्हारी समझ परिपक्व नहीं है।
खैर, पहले मैं ऐसी कोई टिप्पणी सुन कर विचलित होती थी और अपनी वाक्पटुता से उन्हें अपना मत समझाने की चेष्टा करती थी। पर अब मैंने यह स्वीकार लिया है कि ऐसे लोगों के साथ वाक्य का आदान प्रदान मेरी ऊर्जा का क्षय ही है समझो। प्रायः उनकी मंशा तो अपनी उम्र और तजुर्बे का हवाला देते हुए मेरी समझ और स्थिति को नकारने की रहती है।
वो अँग्रेजी में कहते हैं ना, एक्शन स्पीक लाउडर दैन योर वर्डस, तो बस अपने कर्म सजगता से करती हुई अब यह समझती हूँ कि मैं, उनके मेरे प्रति आकलनों और धारणाओं का योग नहीं हूँ। मैं विचार, वाणी और व्यवहार में स्वतंत्र हूँ और मुझे मेरी इस स्वतंत्रता के प्रयोग का सम्पूर्ण अधिकार है। साथ ही मुझे यह किसी के समक्ष साबित करने की आवश्यकता भी नहीं है।

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क्या हमारी अपेक्षाएँ हैं और क्या हमें स्वीकार्य है, जब तक हम इनके दायरे निर्धारित नहीं कर लेते और जब तक हम उन दायरों को उजागर नहीं कर देते तब तक अपनी भावनाओं को आहत करने या ना करने का अधिकार हम अन्य हाथों में सौंप देते हैं।
और फिर जब इन अधिकारों का सम्मान उनके द्वारा हमारे अनुरूप नहीं किया जाता तो शुरू होता है आरोप प्रत्यारोप का दौर। दुख की दरिया में गोते लगाते हुए हम अपनी जिम्मेदारी को कहीं भूल जाते हैं।
कुरुक्षेत्र में भले ही पार्थ को आवश्यकता थी कृष्ण रूपी सारथी की पर आज भावक्षेत्र में हम ही कृष्ण हैं और हम ही पार्थ हैं। अपनी भावनाओं की बागडोर स्वयं हमारे हाथों में हो तब जाकर हम चाहे अनचाहे, चिर परिचित, मनोभावों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।
यह रथ किस ओर जाएगा इसकी जिम्मेदारी सिर्फ हमारी है तो क्यों किसी अन्य सारथी की मनोदशा पे निर्भर रहना, क्यों नहीं अपनी बागडोर आप ही संभालना?

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दिनकर की अप्रतिम स्वर्णिम राशि
विस्मित हो देखूँ मैं अम्बर में काशी

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