Arun Prajapati   (Arun ارون)
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Joined 8 November 2017


Joined 8 November 2017
22 FEB 2019 AT 22:05

मैं कवि विरह का ग़म लिखता
मैं हँसी-ठिठोली कम लिखता

सब लिखते हैं ऋतु सावन की
मैं पतझड़ का मौसम लिखता

जो फिर से जीना चाहूँ मैं
वह गाँव गली बचपन लिखता

कुछ है जो मिटे मिटाये ना
मैं प्रिये तेरा चुंबन लिखता

हूँ स्थिर नहीं समुंदर सा
मैं लहरों सा चँचल लिखता

संध्या से धूप चुराकर के
उदयाचल में दिनकर लिखता

एक क्षण में ही मर जाता हूँ
मैं अगले क्षण जीवन लिखता

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3 FEB 2019 AT 16:42

बड़े संभल के चलते हो
तुम आईनों से बच के चलते हो

पहुँच है तुम्हारी सितारों तक
जुगनुओं को कुचल के चलते हो

किस नाम से पुकारें हम
रोज़ सूरत बदल के चलते हो

खुल जायेगा भेद एक दिन
झूठ पहलू में रख के चलते हो

मिल गया होगा ज़रूर कोई
आजकल हम से कट के चलते हो

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27 JAN 2019 AT 13:35

चूम कर तुमने रख दिया था किताबों में जिन्हें
फूल वो ख़्वाबों से जग जाते तो कहाँ जाते

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4 JAN 2019 AT 16:57

पथिक बाट से चले गये सब, फिर क्यों पथ पर नयन पसारूँ

जीवन तुझसे हार क्यों मानूँ

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8 DEC 2018 AT 15:45

अहल-ए-वफ़ा जो लोग थे जाने कहाँ गये
हम भी मुराद ले के न जाने कहाँ गये

पहलू में बैठिये तो बताते हैं क्या हुआ
साक़ी शराब और मैख़ाने कहाँ गये

मुद्दत हुई है तुम पे कुछ लिक्खा नहीं गया
देखूँ वो मेरे जख़्म पुराने कहाँ गये

शीशे की जात चुटकियों में ख़ाक हो गये
पत्थर को हम गले से लगाने कहाँ गये

किसने चुरा ली घर के चराग़ों से रौशनी
बेख़ौफ़ घूमने के जमाने कहाँ गये

अब किससे आशनाई निभायें यहाँ पे हम
दुश्मन जो मेरे थे वो न जाने कहाँ गये

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13 NOV 2018 AT 18:26

क्यों इल्ज़ाम मढ़ें साक़ी पर, ये क़सूर तो अपना था
उसने प्याला सही थमाया, हमसे साग़र छूट गया

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19 SEP 2018 AT 10:12

जाते-जाते ज़माने का वहम तोड़ गया,
मर गया सिकंदर और मुट्ठी खुली छोड़ गया।

फ़लसफ़ा ये कि जिस-जिस ने भी दुनिया जीती,
एक कफ़न ले गया बाक़ी यहीं पे छोड़ गया।

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1 SEP 2018 AT 20:32

भीड़ से बेहतर है कि सुनसान में रह लूँ
सूरज सा अकेला मैं आसमान में रह लूँ

ग़र लीक से चलना परे गुस्ताख़ियों में है
चल कर के समंदर पे ग़ुस्ताख़ मैं रह लूँ

सब एक-एक कर के मुसाफ़िर चले गये
रस्ता हूँ फिर किसी के इंतेजार में रह लूँ

अर्सों के बाद घर में लगाया है आईना
पहले जरा खुद का इस्तक़बाल मैं कर लूँ

लहरों से खेलता हूँ, हो जाता हूँ दफ़न
हर बार सोचता हूँ कि औकात में रह लूँ

है वक़्त ही कहाँ कि किसी से जिरह करूँ
दो-चार रोटियों के बस जुगाड़ में रह लूँ

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16 AUG 2018 AT 22:10

देख इरादे महापुरुष के, मौत बहुत शर्मिन्दा है
देह मर गयी होगी लेकिन "अटल" हमेशा ज़िंदा है।

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16 AUG 2018 AT 19:59

छोड़ गया अपनी चिंगारी,
प्रतीची में लालिमा भारी,
करने को कल की तैयारी,

नभ से दूर गया,
सूरज डूब गया।

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