सुबह उठते ही कुछ देर खुद को समझाया करता हूं कि मैं यहीं हूं तेरे साथ, मुझे महसूस कर। फिर सारे काम निपटा कर बाहर की और निकलता हूं। सड़क पर चलती गाड़ियों को गौर से देखकर डरता हुआ उस पार होता हूं। सुबह, धूप, मौसम, हवा कुछ महसूस नहीं होता। मै कोशिश करता रहता हूं सीधा चलने की। ऑफिस पहुंचने से पहले खुद को संभाल लेता हूं । साथ वालो को देखता हूं और उनके जैसा रहने की कोशिश करता हूं ताकि उन्हें कोई फर्क न लगे। थोड़ा सा हंसना याद रहता है जब तक किसी से बात करता हूं। शाम की वापसी भी बेहोशी में होती है। वापस आकर एकटक छत को देखता हूं फिर जरूरत महसूस होती है फोन देखने की। दिन में कितने फ़ोन आए देखकर भी वापस रख देता हूं दुबारा नहीं करता। किसी से कोई शिकायत नहीं है।
मां को शिकायत रहती है जबसे बाहर गया है ज्यादा बात नहीं करता । फोन का इंतजार रहता है फिर हार कर खुद ही कर लेती है। पापा भी कहते हैं थोड़ा बात कर लिया कर। मैं समझ नहीं पाता क्या कहूं? उन्हें लगता बाहर की दुनिया में मशगूल है। चलो ऐसा ही सही ये भ्रम भी ठीक है उनके लिए।
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