मुहब्बत कोई बिस्तर नहीं , मगर उस पर सोया जाता है ,
कुंवारे होंठ अक्सर अपने पहले बोसे पर बहक जाया करते हैं ।।
तब अर्श हिल जाता है , तभी ज़लज़ले आते हैं ,
संगमरमर से बदन जब हवस की आग़ोश में पहुंच जाता है ।।
तब मुहब्बत इबादत नहीं, ग़िलाज़त बन जाती है ,
मूहब्बत कोई बिस्तर नही , मगर उस पर सोया जाता है ।।
बच्चों की चाहत में माँ बाप ईश्वर अल्लाह से भीख मांगते है ,
कहीं नवजात बच्चे नालों और कचरों के ढेर पर मिल जाते है ।।
कुंवारी कोख में पलने वाले फूल , खिलने से पहले मसल दिए जाते हैं ,
और कहते है कि ज़रूरत नही थी अभी , गलती से आ जाते है ।।
इंसानियत ऐसी लाशें देखकर लरज़ उठती है मगर ,
हवस मुहब्बत बनी ,इन लाशों पर नाचती है ।।
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