रात, अकेली सड़कों पे जो चल रही है वो,
रात, सब की नज़रों में अब खल रही है वो
बढ़ते रफ़्तार संग जो खिसक रहा है पल्लू
रात, लग रहा सब को कि, मचल रही है वो
ज़र्री लिबास मगर बेरंग कांप रही है ठंड में
रात, आस को हथेली बीच मसल रही है वो
कोई साया चला है, गिरते पल्लू को खींचने
रात, अंदर ही अंदर ख़ुद में गल रही है वो
कतरन तक न छोड़ा ज़िस्म में, रो पड़ा चाँद
रात, गुज़र रहा है वक़्त, मगर ढल रही है वो
लूट कर ले गया अंधेरा अस्मिता रोशनी की
रात, कालिख़ न लगे सुबह, संभल रही है वो
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