अपर्णा झा  
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Joined 21 February 2017


Joined 21 February 2017
19 JUL 2021 AT 8:24

ज़िन्दगी कितने सवाल करती है हर पल
हर कदम...
कभी जवाब भी तो खुद से ढूंढा करो खुद में
सुना नहीं तुमने...
मैंने जवाब देना बंद कर दिया है

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16 APR 2021 AT 13:30

भीड़ की विशेषता है कि यह उन्मादी होती है.
परिणाम :या तो क्रांति या बर्बादी...
आपकी चेतना किस ओर की है...
क्रांति या बर्बादी...?
विवेकशील होकर समाज के हित में होना या
अविवेकी होकर शिकायतों का अंबार लगाना.
याद रहे कि दूसरों के कांधे बंदूक चलना खुद के लिये भी और देश के हित में भी खतरनाक होता है.
अपनी जिम्मेदारियों को भी समझें.किये गए सही और गलत को स्वीकारने की खुद में आदत होनी चाहिए.

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27 SEP 2020 AT 20:10

ज़िंदगी की दास्ताँ भी कुछ अजीब सी है
कभी खामोशियों में बैठना अच्छा लगता है,और
कभी यूँ सोचते हैं कि कितने लम्हे ज़ाया किए
खामोशियों में बैठ कर...
तबाही वैसे भी थी, तबाही ऐसे भी
तूफान का आना, दरमियान चले जाने के
दौरे तूफान होता है एक सिलसिला
खामोशियों का,
खामोशियों को चीर पार करने का,और
खामोशियों को फिर से संग
खामोशियों से जोड़ने का
जिंदगी गुज़र जाती है इन
खामोशियों को पाने तक, और
कभी जिंदगी खामोश हो जाती है
ज़िंदगी की खामोशियों को देखकर.

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25 SEP 2020 AT 20:55

जब समय की चाल उल्टी पड़े ,
व्यर्थ क्या सोचना, क्या
खोया क्या पाया हमने
इस बहाने से खुद को बहला लिया _
समय शाश्वस्त है...
कब रुका है किसके लिये
कट ही जायेगा यह क्षण भी
क्या हिसाब रखें,
क्या-क्या हिसाब करें.

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20 SEP 2020 AT 14:29

"स्त्री" : प्रेरणाश्रोत
कभी-कभी स्त्री होने पर गर्व होता है और कभी-कभी टूटने के कगार पर भी हो तो भी खुद को वह स्थिर कर लेती है. शायद स्त्री जन्म ही ऐसा है कि टूटने पर भी खुद को खड़े करने के लिये सहारे नहीं ढूंढती,बल्कि ऐसे स्थितियों, विषम परिस्थितियों में भी खुद को किसी का सहारा बन खुश होने की संतुष्टि अनुभव कर लेती है.खुद को विपरीत परिस्थियों में भी मजबूती से खड़े रखना...यही तो स्त्री ने जाना है, माना है.शायद प्रकृति ने स्त्री का सृजन को ही खूबसूरती/सुंदरता को परिभाषित करने का माध्यम बनाया हो.

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28 MAY 2020 AT 7:44

मित्रता ईमानदारी का दूसरा नाम है.यदि मित्र होने का दम भरनेवाले आपसे यह सोचकर बात करते हों कि उसे क्या अच्छा लगेगा और क्या बुरा लगेगा जिसके फलस्वरूप मित्रता टूट ना जाए...वो कभी मित्र होने लायक नहीं.मित्र आपका समालोचक और उससे भी बड़ा आलोचक होता है जो आपके मुँह पर आपकी आलोचना कर आपसे सुधार की उम्मीद करता है.

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27 MAR 2020 AT 12:51

पहले फेसबुक से समय निकाल घर पर समय देती थी. आज घर से समय निकाल फेसबुक पर दे रही हूँ. पर ना जाने क्यों एक शान्ति सी मिल रही है.वो क्या कहते हैं आजकल...'सैनीटाइज़'... सच मे पूरा वातावरण ही 'सैनिटाइज़्ड' लगता है.

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20 MAR 2020 AT 12:07

कुछ तो कहा होगा
उसने जरूर
ख़ामोशियों को मेरे उसने
कुछ तो समझा होगा जरूर
क्या कहा होगा उसने
मेरी ख़ामोशियों से क्या समझा होगा
तब सोचने समझने की
फुर्सत ना थी
आज वक्त हाथ से फिसल गया.

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20 MAR 2020 AT 12:00

"पत्थर"
इतना कठोर जो होता तो
देवत्व तुम्हें कहां दिखता...
फिर सुख और दुख की भावना
कहां उड़ेलते तुम
दुनिया से चुपके माफी किससे मांगते...
क्षमा फिर मिलता भी तो कैसे!
फिर भी कहते हो_
"तुम पत्थर हो, पत्थर...
हो तो तुम कठोर ही.

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6 FEB 2020 AT 13:25

हर उम्र का एक सफर होता है
एक सफर जीते हैं हम जन्म से अंत तक
एक सफर होता है जीवन में विवाहोपरांत
और एक उम्र वो, जो जीते हैं वानप्रस्थ को
हर उम्र के सफर की कहानियों का सिलसिला
एक सा ही... 
होकर गुजरना पड़ता है बचपन, जवानी और
वानप्रस्थ की अवस्थाओं को और जिसका
अंत परिणाम है एक नए बीज के प्रस्फुटन का
और, फिर से, तय करना होता है सफर,एक सिलसिला
बचपन, जवानी, बुढापा यानि जन्म से अंत का...





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