सबसे ज़्यादा भ्रमित करते हैं हमें, हमारे शब्द ! किसी से नाराज़गी जताते शब्द, उपरांत पीड़ा पहुँचाते हैं ! किसी की बुराई में कहे गए शब्द, उपरांत ठेस पहुँचाते हैं ! फ़िर आता है काल पश्चाताप का ! शब्दों का सही उपयोग आवश्यक है ! परंतु पीड़ादायक शब्दों की, ग्लानि से निकलना, अति आवश्यक है ! बीते हुए कल और कहे हुए शब्दों की, वापसी नहीं होती ! उन्हें अपने भीतर से जाने देना, अत्यंत आवश्यक, शांतिप्रिय व सुखमय है !
कोई कैसे किसी की याद में, सारी ज़िन्दगी गुज़ार लेता है? उस प्रेम को क्या हम, किसी के साथ रहते हुए, जीते हुए, सोते-जागते हुए, महसूस कर पाते हैं? या विरह ज़रूरी है, प्रेम की अनंतता को, महसूस करने के लिए? क्या सच्चा प्रेम, विरह में ही मुमकिन है?