Anuj Gautam   (अनुज)
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IIITDM JABALPUR

Insta: @kaghzikhwahishein
Joined 4 July 2017


IIITDM JABALPUR

Insta: @kaghzikhwahishein
Joined 4 July 2017
5 JUL 2022 AT 22:37

बगीचों में
उलझा हुआ व्यक्ति
ढूँढता है कोई
पतली सी मेड़
जो उसे लेकर जाती है
तालाब के पास

तालाब में
डूबता हुआ व्यक्ति
ढूँढता है कोई किनारा
जो उसे
मौत से दूर लेकर जाती है

मेड़ों और किनारों में
व्यक्ति अक्सर ढूँढता है

खुद को, खुद के जीवन को !

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17 OCT 2021 AT 6:14

जब भी बैठोगी सोच में,यादों में देखोगी
मेरी उँगलियों को अपने बालों में देखोगी

बिंदी लगाके ,हमको कर ही लोगी वश में
आईना,शर्माके जो हसीं रातों में देखोगी

मेरा मानना था कि उसको जन्नत अता होगी
बड़े प्यार से तुम जिसकी आँखों में देखोगी

तुमसे मिलने के वास्ते, तुमको ये ख़त भेजा है
चंद ख़ुशबूदार नज़्में बिछी हुईं राहों में देखोगी

तुमने रख दिए मेरे हाथों पर हाथ यकबयक
हमने सोचा इसके बाद तुम आँखों में देखोगी

कोई नज़्म, ग़ज़ल या कोई क़िस्सा सुनाना हो
तुम ही तुम हो हमेशा गौतम की बातों में ,देखोगी ?

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14 OCT 2021 AT 22:55

मैं जब भी

देखता हूँ भीड़ आसपास
तो अक्सर वहीं कहीं
किनारे पर जाकर बैठ जाता हूँ
और 
सबकी शकलें देखता हूँ
सुना है - 
दो साथ रहने वाले लोग
बिछड़ने के बाद
अक्सर मिल जातें हैं
इत्तेफ़ाक़ से

भीड़ में….!

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11 FEB 2020 AT 1:22

महज़ होते ही हैं मोहब्बत के कितने दिन ?

अमां यकीं न हो तो फरवरी ही देख लो

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22 NOV 2019 AT 0:46

*डिवीजीबिलिटी*


अनुशीर्षक में ।

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15 OCT 2019 AT 23:44

*लालटेन*

बहुत रात हुई,
चराग बुझने को है,
रात भी स्याह है इतनी कि
चाँदनी तक छिप गयी है
सर्द रात है,
कोहरा भी बहुत तेज पड़ रहा है,
हवाओं के ठंडे छुवन से
शाखों के नए पत्ते सिकुड़कर
अपने घरों में बैठे हुए हैं

लेकिन,
मुझे थामे ये बुढ़िया
बैठी हुई है ऐसे ही कई सालों से,
बरामदे में, बिना कम्बल ओढ़े
और पूछती रहती है सन्नाटों से
बस एक ये ही सवाल हर रोज कि

"इतनी रात हो गई नज़ीब अबतक नहीं आया?"

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11 OCT 2019 AT 22:59

ये रात के सन्नाटे तन्हा कहाँ?
मुझसे मिलता हूँ मैं बात करने को ।

पर सुबह होते ही
उसे वहीं छोड़ आता हूँ
ये सोचकर कि
कहीं रात तन्हा न हो जाए ।

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8 OCT 2019 AT 12:11

स्याही उतर कर सफ़हे पर
लगी है बहने लहू की तरह
अब डायरी भी मेरी,मुझको
जमीं के जैसे दिख रही है

हिस्सों में बंटते हुए ।

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26 SEP 2019 AT 13:12

कभी बेबस, गुमराह तो कभी अनजान है मुसाफ़िर
शहर के उस मोड़ पर तन्हा,परेशान है मुसाफ़िर

रोज आते हैं लोग, दफना जातें हैं यादें अपनी
कबसे अफसुर्दगी में बैठा, शमशान है मुसाफ़िर

तबियत पूछने में भी आज तकल्लुफ करते हैं
क्या ज़माना है कि इंसान को इंसान है मुसाफ़िर

किसीके निगाहों के जाम तुझसे मांगता है साक़ी
देख तो, मयखाने में कितना बेईमान है मुसाफ़िर

एक बाहर की आवाज़ सुन,खींच दी घर में लकीरें
अपने ही किए पर फिर क्यों पशेमान है मुसाफ़िर?

शहर की बदलती हवा देख मत घबरा ए 'गौतम'
शहर में होता कुछ दिन का ही मेहमान है मुसाफ़िर

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2 SEP 2019 AT 12:10

मुझे होश कहाँ था खुदका, मैं कबसे एक ख़ुमार में रहा
लोग समझाए बहुत, सोमवार है, मैं नशा-ए-इतवार में रहा

पूरे दिन मेरे घर के सभी दीवारों की नीलामी होती रही
पूरी रात मैं खुद के पुर्ज़े लेकर खड़ा किसी बाजार में रहा

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