मैं चाहती थी सदा ही, उसकी कविता बनना..
मैंने चाहा ही कब प्रेम में, प्रेयसी,दासी,भार्या होना..
मैं तो उसकी लेखनी से लिखा जाने वाला,
एकैक शब्द होना चाहती थी..
उसकी कविता में बसा चिर स्थायी
भाव हो जाना चाहती थी...
जो उसे बनाते हैं कवि उन समस्त,
प्रेरणों का आधार होना चाहती थी..
किन्तु यह हो न सका..
यह हो न सका क्यूँकि प्रेम में मात्र,
एकात्म हो जाना पर्याप्त नहीं..
प्रेम का होना दैविक,पारलौकिक, प्रेम की पुष्टि नहीं..
वरन प्रेम का होना लौकिक, दैहिक अत्यावश्यक है..
यह सिद्ध करने को, कि प्रेम किया गया है..
भूल गयी थी कि मैंने नहीं किया किसी देवता से प्रेम...
कि प्रेम में नहीं देना चाहिए किसी को ईश्वर का स्थान..
अस्तु अधिक आवश्यक है, प्रेयसी,दासी,भार्या होना...
प्रेम में कविता होने से...
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