मुद्दतें बाद आज तुझे अल्फाजों के धारा से भीगोने को मन किया
मस्तिष्क में वो बात थी की, तुझे और लिखूंगी नहीं, पर शायद
मेरी कलम, दिल के सामने अपने स्याहि से बिखरी जज़्बातों को
नहीं रोक पाई ।
ड़रती हुं, लिख देने से कहीं तुम शीर्षक पढ़ ना लो, के मेरे मन
की ध्वनी, जो तुम्हारी नज़रों से छिपाती आई हुं, वो कहीं इन
नज्मों के बहाने.. तुम्हारे सामने बाहें फैलाए ना बैठ जायें ।
परछाई में छिपा वो इश्क, जिसे अपने दर्द के दुपट्टे द्वारा पुरी
दुनिया से ढक रही हुं, कहीं तुम उसे पूरी तरह ना पढ़ लो ।
फिर भी आंखें मूंदे, अश्कों के बीच से जो धुंधला सा पृष्ठ दिख
रहा है, उसमें महज़ उन लफ़्ज़ों को सजा रही हूं ।
आज भी यादों के संदेश लिये आंखें और मुस्कुराहट दील तक
पहुंच जाती हैं,
पर दील उन्हें गले नहीं लगा पाती ।
क्योंकि अगर गले से लगा लिया तो.........
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