काँपते होठों पर से भीआवाज़ यही निकलती है..उम्मीद की पतली डोर को पकड़े,हलक़ पे जान ये चलती है ।बर्फ का भले है गिरा समंदरघुटा पड़ा तो है अब दम..अरे साँस अभी भी ज़िंदा हैइतनी जल्दी थोड़े ही मरेंगे हम । - आभास
काँपते होठों पर से भीआवाज़ यही निकलती है..उम्मीद की पतली डोर को पकड़े,हलक़ पे जान ये चलती है ।बर्फ का भले है गिरा समंदरघुटा पड़ा तो है अब दम..अरे साँस अभी भी ज़िंदा हैइतनी जल्दी थोड़े ही मरेंगे हम ।
- आभास