बर्सों तक यूंही चला तन्हा,
दर दर भटका, था मै जैसे कोई काफ़िर,
एक रास्ता दिखा, उम्मीद ने कहा,
मिल जाएगी तुझे मंजिल आखिर।
करी आंखें बंद और चल पड़ा उसी उम्मीद के साथ में,
जीत तै है मेरी, चीख-चीख कर दिया दुनिया को ज़ाहिर,
बीच सफ़र, आराम किया सोच के काफ़ी समय है हाथ में,
नींद खुली तो पता चला, रास्ता और उम्मीद दोनों ही ना-हाज़िर,
बस फिर क्या था, आंसू पोंछे, कपड़े झाड़े और फिर चल पड़े,
क्योंकि हम काफ़िर तो बनें ही हैं सफ़र की ख़ातिर।।
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