मैं भी लड़ सकता था, जात पर ,धर्म पर , ज़िंदगी भर ईर्ष्या में डूबा रहता किसी के सुंदर होने पर या मुझसे अधिक भाग्य होने पर मगर मैंने प्रेम चुना क्योंकि प्रेम से मैं कृष्णा को जीत सकता था और कृष्ण के आगे भी कोई और जीत पाया क्या।
चलते चलते बहुत दूर निकल आया थक कर बैठा तो आस पास शून्य पेड़ थे मैंने पीछे मुड़ कर देखा सिर्फ़ विनाश दिखा इमारत रूपी विनाश जो खड़े थे प्रकृति के कोख के ऊपर लात मारते हुए प्रकृति के गर्भ को मैंने देखा कैसे आस पास के सारे हरे खेत मुरझा गए हैं बूढ़ा हिमालय अरावली के मौत पर मातम मना रहा हैं हिमालय जिसपर अब बर्फ़ नही हैं ऐसा लग रहा हैं मानो उसे पता है की अब वो भी मानव क्रूरता में अरावली होने को हैं तभी मेरा भविष्य मेरे सामने खड़ा होकर पूछा मैंने सुना था की विज्ञान ने सिर्फ़ विकास किए हैं लेकिन विज्ञान ने छीन लिया अतीत के मानव से मानव होना और डाल दिया मुझ भविष्य को हिमालय के आशूँ के श्राप में।