कभी दिल पर कभी दिलवर तुम हाथ रखो
मुझे घर से निकलने पर अपने साथ रखो
तुम्हें जिस लय ने समझाया है कविता जिंदगी का
कभी दिन ढल गया तो अपने पास रखो
मेरे एहसास जैसे एक होते जा रहे हैं
दिल भर आए मेरा अपना एहसास रखो
सुनाओ ज्ञान की बातें सुनकर अच्छा लगे
हमारा हाथ भी पकड़ो अपना हाथ रखो
वहीं गीत है संगीत है सुनते जिसे आए
मुझे ऐसे सुनाओ आखिरी सांस रखो
जिसे हम खोजते रहे हमारे आईने में
जब मिलने को आओ आईना साथ रखो-
वो तुफान समझते है बहुत नायाब कर रहे है।।
©अंगद(... read more
एक गहरी सांस और एक गहरी अनुभूति
दोनों एक जैसे होते है
दोनों संकट के क्षण में
ही मिलते-जुलते हैं
और दोनों पुनः खो जाते हैं
अगले पन्ने पर मिलने के लिए
जब आप पुर्नतया अनभिज्ञ रहेंगे
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ख़बरें मिलाकर अखबार बनाते है
अखबारों से आज बाजार बनाते है
तुझे हम बुरे दिखाई पड़ते हैं
चल तुझे संसार दिखाते है
मेरे कमरे से बाहर क्रुर दुनिया है
दरवाजे पर आओ पत्रकार दिखाते है
कितने शान से फहरा दिया झंडा प्रेम का
आईना मत देखो समाचार दिखाते है
खिड़की खोल कर रखो जरा भी देर न करो
हत्यारों के साथ खड़े परिवार दिखाते है-
मोहब्ब्त के ठेकेदार बैठे हैं
हुस्न के पहरेदार बैठे है
चारों तरफ खुदखुशी का मामला है
मौत के खरीददार बैठे है
यहां हर चीज बिकाऊ है
हर मोड़ पर खरीददार बैठे है
तुम्हें अखबारों में आना है
यहां आओ पत्रकार बैठे है
झुंड में बने है दुश्मन हमारे
हम आजकल सरकार बैठे है
तुझे हम ये भी सिखाया करेंगे
तब तक हम होशियार बैठे है-
ज्ञान और दर्शन
छोटे छोटे पहलुओं पर
बड़े बड़े बात बनाते हैं
जिनका वास्तविकताओं से
सामंजस्य स्थापित करना अनिवार्य है
स्वयं को अति आवश्यक बताना
आधुनिक काल में परंपरा है
परंतु मनुष्य अभी तक क्षुद्र स्वार्थों से
स्वयं को बचाने में असमर्थ है-
हो गई देर आपसे मिलने में
ये बातें वो सभी से कहते है
कहीं बारिस,कहीं सुखा,कहीं बाढ़
आसमान ये बातें जमीं से कहते है
मैं कहाँ रहुँगा तुम्हारे दिल में
हमारे कातिल दिल्लगी से कहते है
कौन बना लेता शराब हवा में भी
वस्ल की रात आँखें हमीं से कहते है
हम झुक गए कैसे मजे में आपके सामने
दर्द दिल के फिर हमीं से कहते है-
किसी आँगन में अपनी याद फिर से छोड़ आया हुँ
जिसे खोजे कोई उस रास्ते को छोड़ आया हुँ
तुझे गम है तेरे जाने से मेरा क्या होगा
इसी गम में मैं अपना घर छोड़ आया हुँ
तु रख ले आज फिर वहम तेरे भरोसे मैं
मैं तकदीर को मेरे भरोसे छोड़ आया हुँ
कब से भीगते होंगे वो अपने आखिरी दम पर
मैं घर से युँ निकल आया खुद को छोड़ आया हुँ
जिसे तु खोजती रहती है हर दिन आईने में
जब तुझ से मिला मैं आईने को छोड़ आया हुँ-
एक स्याही फैल गई स्वयं
कागज पर और इस तरह
एक चित्र बनते बनते रह गया
इसी स्याही को अगर कोई अपने
लिए फैलाता तो ये बन जाती
एक सम्पुर्ण चित्र
इन सबके बीच किसी ने किया
अनुभव कागज की विवशता
और उससे अधिक
उस स्याही की जिसे स्वयं
अपने शक्ति का अनुमान नही-
क्यों जीते हो यारों किसलिए तुम आह भरते हो
जिए जाओ जहाँ किसलिए तुम चाह करते हो
समझ न आए तुमको शेर नज्म औ गजल की बातें
जरा सा अनसुना कर दो किसलिए वाह करते हो
कमर पर है नजर उनकी जिन्हें डर है शराफत का
ये गलती है नही तेरी किसलिए आह करते हो
न छेड़ो अब हमें हम अब जरा नाराज बैठे है
हमारे पास आकर किसलिए ये चाह करते हो-
कहीं खुशियाँ कहीं खामोशी सी लगती है
शाम,सर्दियाँ आजकल मदहोशी सी लगती है
जिसे आवाज दो और करीब आ जाए
उस शख्स के आसपास कुछ कमी सी लगती है-