एक लम्बे अर्से तक खुशियां तलाशते-तलाशते
जब कोई ठिकाना नहीं मिलता
तो बिखर जाता हूँ ऐशट्रे में राख की तरह..।
कभी ठीक-ठीक खुश होना हो तो क्या करना चाहिए
ये सोच रहा हूँ
और ये सोचने में दुःख लगने लगा है;
दुःख का अपना हिस्सा होता है जिंदगी में
सुख हमें बाहर से उधार मिलता है,
ज़िन्दगी भरने के लिये
और ये डर हमेशा साथ साथ चलता है ज़िन्दगी में...
खैर एक सुख की बात बताऊँ- वो बोली
मैंने बस सिर हिला दिया, हाँ या ना ये याद नहीं
यूँ तो मैं सुखों से भागता रहा हूँ
पर जब तुमनें कहा
तो लगा तुम्हारे सुख तो सुन ही सकता हूँ
उसने मेरा हाथ पकड़ लिया;
ये क्या, मैंनें सुख सुनने की बात की थी,
जीने की नहीं...
वो चाहती तो धकेल सकती थी मुझे कहीं दूर
पर उसने गले लगा लिया
मेरी आँखों के आँसू उसके कन्धे पर छूटने लगे
कुछ लम्हों में उसने मेरा सारा दुःख अपने कन्धे पर उठा लिया...
शेष फ़िर..
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