लौट आता है मां का लड़कपन
अपनी बेटी के साथ।
वो खिलखिलाती है, झूमती है,
हंसती है, गाती है, शर्माती है,
और किस्से यौवन के सुनाती है।
नही लौटता लेकिन
उनका ये बचपना कभी जाने क्यूं
उनके पति और बेटों के साथ।
मर्दों की मौजूदगी में एक स्त्री
हर क्षण केवल देह से बड़ी,
जिम्मेदारियों से झुकी,
समाज की नज़रों से ढकी ही होती है।
वो स्त्री कभी भी
हृदय से दोबारा कन्या नही बनती।
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