उपह्रत करना तिरस्कार की निष्ठुर वाणी मुझे अंत तक; मुझे चाह अंगारों की है वह्निशिखा के गान करूँगा।। मैं, आहत हो जाऊँगा यदि शय्या पर पुष्प चढ़ाओगे; काँटों का अनवरत भिखारी शूलों का आह्वान करूँगा।
यद्यपि वांछा नहीं नदी को संरक्षण के दावों का चाह नहीं है उसे सिंधु तक अनुशासन के घावों का। बंधों का प्रारब्ध आदि से निश्चित है विघटित होना तरंगिणी की चपल चपलता विशृंखल अवधावों का।।
मैं, आहत हो जाऊँगा यदि शय्या पर पुष्प चढ़ाओगे; काँटों का अनवरत भिखारी शूलों का आह्वान करूँगा। उपहृत करना तिरस्कार की निष्ठुर वाणी, सुनो, अंत तक; मुझे चाह अंगारों की है वह्निशिखा के गान करूँगा।।