वक्त से पहले जब हम नही मिले थे तब कितना बेदाग़ सा रहा था जिंदगी आज हमने तुमको दाग़ - दाग़ कर दिया पर कोई बात नही! फिर किसी रोज़ ऐसे ही बैठकर अपना - अपना दाग़ चेहरा मिलकर बेदाग़ कर लेंगे।
उसके नज़र के फ़ेर में रुख्शियत शी थी मेरे नजऱ के फ़ेर में मासूमियत जो थी उधर आहिस्ते-आहिस्ते से क़दम चल रहे थे इधर जल्दीबाज़ी में कदम चल-चल के लड़खड़ा रहे थे आख़िर का वह दिन भी आ गया जब तुमने सब कुछ छोड़ के आ ही गयीं...।
संस्कृतियों को घाट से शुरू करके माथे से लेकर नाक तक सिंदूर लगाकर सुपिली में फल रखकर डूबते सूरज व उगते सूरज को अरघ चढ़ाकर जब छठ मईया के नाम गीत गाते हुए जाती महिलाएं कहती हैं कि! उठs हो सूरज देव, भइले अरघ के बेर। तब लगता है कि हमारी सभ्यता व संस्कृति अभी बची हुई है।
ये हक़ है हमारा तुम छीन नही सकती यादें बेवज़ह नही आती कुछ तो बात है तुम्हारी रूहानी बातों में यहाँ! दर्द-ए-दिल का मामला है ज़रा ध्यान देना अपनी मोहब्बत पे क्योंकि यहाँ वजहें ज़रूरी नहीं होती...।
हर बार की तरह इस बार भी दीवाली में घर नही जा पाए न कौन है यहाँ इस शहर में तुम्हारा! अकेलेपन के सिवा कभी तो जाओ इस बेरुखा सा शहर को छोड़ के अपनो के यहाँ...