Akshunya   (अक्षुण्णया)
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Joined 6 December 2017


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9 HOURS AGO

दर-ओ-दिवार करते हैं इंतज़ार उन
ख़ामोश किलकारियों का वो खिलखिलाती
हंसी की चहक को तलाशतीं हैं बंद खिड़कियां बेसब्री से छत पर लटकता झूमर तरसता है
घुटनों चलते कदमों की आहट के लिए पर वो किलकारी, वो आहट, वो हंसी अब हो गये
हैं पंछी ऊंची उड़ान लिए खाली नशेमन को छोड़

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10 HOURS AGO

मुस्कान सजाकर
फिज़ाओं को
महका कर तुम और
मैं जीते हैं पल प्रेम
भरे एक दूसरे के
पहलू में रखकर सर
जोड़ लेते हैं तक़दीर
अपनी मुलाकात कहते
हैं शायद इस पल को

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10 HOURS AGO

महक सा फिज़ाओं में
घुलकर महकता और
महकाता हुआ अंधेरों
को रौशन कर चांद
हो जाता है तेरे मेरे
मन का तुम हो जाते
हो आकाश और मैं धरा

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23 APR AT 22:49

हमने ही बनाया
हमने ही सजाया
अब हमें ही जिसने
सूली पर चढ़ाया
समाज जिसे कह
कर है सबने पुकारा

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23 APR AT 22:41

उलझा हुआ है
अपने ही विचारों में
कभी अमावस के
ख़्यालों में कभी
पूर्णिमा के सवालों में

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22 APR AT 21:58

आंखों में सजाकर काजल की
तरह यादें तेरी रोज़ में जागती
हूं फिर सजाकर सपने की तरह
तुझे मैं नींदों में रहा करती हूं फूलों
की खुशबू सी महकती हूं जब तेरे
स्पर्श को महसूस करती हूं क्या है
तुम्हें भी एहसास मेरी यादों का ऐसा ही

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22 APR AT 21:34

कहीं तुम बहती लहरों से दूर
न हो जाओ मुझ से अंधेरों में
कहीं खो न जाओ साये की तरह
फिर दूसरे पल ही ख़्याल आता
है लहरें लौटकर फिर आ जातीं हैं
किनारे की बाहों में साया फिर से
हो जाता है प्रकाशित उजाले संग

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22 APR AT 21:00

तलाशती हूं खो गई है
जो दूर कहीं समंदर की
गहराई में या फिर हो गई
हिम से भी ज़्यादा ज़र्द
दुर्गम शिखर पर उष्णता
क्षीण हो गई जिसकी उस
अस्तित्व का परिचय मैं

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22 APR AT 20:49

सागर से गहरा पर्वत
से ऊंचा ज़िन्दगी सा
उलझा मुस्कान सा
सुलझा चांदनी सा
उजला उष्ण आफ़ताब
सा रख अस्तित्व
को कुछ ऐसा

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21 APR AT 22:07

कभी दूर बहुत आती है
नज़र कभी रेत सी फिसल
जाती है कभी रुलाती है
बहुत कभी ख़ुद ही आकर
थाम लेती है हाथ मंज़िल है
बहुत नखरे दिखाती है

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