खुदा:कविता:अजय अमिताभ सुमन
इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता तुम कितना खाते हो.
इससे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता कितना कमाते हो.
इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि तुमने कितना कमाया है.
इससे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता तुमने कितना गंवाया है.
दबाया है कितनों को कुछ पाने के लिए.
जलाया है कितनों को पहचान बनाने के लिए.
इससे भी फर्क नहीं पड़ता तुमने दूजों को रुलाया है.
फर्क इससे भी नहीं पड़ता कि अपनों को सताया है.
फर्क इससे पड़ता है कि तुम भी हँस सकते हो.
तोड़ के बंधन सारे तुम भी उत्सव रच सकते हो.
अंगुलिमाल हो या कि रत्नाकर बुद्ध छिपे इंसान में.
फर्क इससे पड़ता है कि खुदा में तुम बस सकते हो.
- AJAY AMITABH SUMAN