नींद आंखों में गोते लगा रही है। शरीर के अंगों को विश्राम चाहिए। चैत्र की ये चील चिलाती धूप, कोमल त्वचा से खार खा रही है। रूखे होंठ सुखी जुबान, पल पल पानी के कुछ घूँट मांगे। थोड़ी सी अंगड़ाई है, आलस के तार से उतरना न जाने। झपकी नींद की ले लेता हूँ। एक दरी बिछाई है, और कुछ हल्का रख लेता हूं सिरहाने।
संग हूँ मूर्खो के कतार में। गिनने के प्रयास में असफल हुआ, उधारी थी मेरी न जाने कितने किरदार में। अग्नि से उजाला मांगा, घर की लालटेन जलाना है। कोने में लालटेन रखा, लगा लकड़िया सुलगाने जल गया घर एक फूंक में, थोड़ी लालच रखा पकवान खाने की। वायु से उधारी मे उसको मांगा,एक सुकून की नींद दो। मुझे अपने अंदर भिंच लो, उसने ऐसा क्यों किया। मेरा बिछौना मुझसे छीन लिया। जल से हाथ जोड़ वर्षा मांगी। खेतों की प्यास बुझा दे, मेरे फसलों को जीने की आस दिला दे। अड़ियल ऐसी बरसते रही वो रात दिन, खेतों को वो खा गई। फसलें घुट मर गए। मेरे आंखों से खून बहा गई।
संग हूँ मूर्खो के कतार में। गिनने के प्रयास में असफल हुआ, उधारी थी मेरी न जाने कितने किरदार में। अग्नि से उजाला मांगा, घर की लालटेन जाना है। कोने में लालटेन रखा, लगा लकड़िया सुलगाने जल गया घर एक फूंक में, थोड़ी लालच रखा पकवान खाने की। वायु से उधारी मे उसको मांगा,एक सुकून की नींद दो। मुझे अपने अंदर भिंच लो, उसने ऐसा क्यों किया। मेरा बिछौना मुझसे छीन लिया। जल से हाथ जोड़ वर्षा मांगी। खेतों की प्यास बुझा दे, मेरे फसलों को जीने की आस दिला दे। अड़ियल ऐसी बरसते रही वो रात दिन, खेतों को वो खा गई। फसलें खुट मर गए। मेरे आंखों से खून बहा गई।
भीतर एक अशांति घर कर रखी थी। विपरीत दिशा में कोई खिंच रहा, मानो किसी जंग में परास्त हुआ सिपाही अपने जंग खाई तलवार देख रहा है। एक तैखाने में कर खुद को, अपने भावनाओं के आतिशबाजियों में नाहा रहा है। उस आतिशबाजी से निकली एक चिंगारी प्रेम की। वो उसको पकड़ न सका। बैठ कर कल्पना के नाव पे, देख रहा सुनेहरी सचाई। प्रेम क्या है। चहरे पर झुर्रियां आँखों में एक दिशा थी। हृदय में चंचलता और पूरे विश्व का विश्वास अर्धांगिनी के चरणों में।
कुछ कहो, कसक के कृपाण न चलाओ। लहू बहेंगे मीत के। धारा बहती सिहरन की, न लपटे उगले खीझ के। हाथ पकड़ रोक लो। भाव, शब्द न रखो तुम ऐसा, जिसपे तुम्हे संकोच हो। खाली ओखल, सिलवट पे तुम धार रखो। हृदय पे जब जब छाया हो, वियोजन की बात छिड़े। मीत को बचाने में, अपनी तुम हार रखो।
खारा कब खास हुआ। बल बुद्धि का मारा, अनिपुण, व्यक्तिगत रूप से अभागा। चाभी कसी हो जैसे विफलता की, छिछलन भरे तालाब में, ढूंढ रहा है किनारा। हाथों को मलता और लकीरों से बात करता है। घोल के मकरंद कैसे पिये। पल पल , प्रतिदिन ,प्रतिरात, उड़ते भवरों की जात पड़ता है। बसा जब भाग्य का बसेरा, ओझल हुआ धुंध। हाथ में आ गया पतवार जो था मेरा। खारा फिर खास हुआ, जन जन को रास हुआ।
जीवन से ऊब मैं, कीमती बाग़ बिछाया। हो अंतर मन की शांति, ग्यारह रसो को,कलियों में खिलाया। न सुकून की रैन मिली। न मन के भागे बसेरा। क्या चिंगारी संग लिपट जाऊं। समा जाऊं किसी ताल में। आखिर क्या कसूर है मेरा। मांगू नए जीवन की प्राप्ति, अनुनय न मिले कोई स्वार्थी। कर्मठ व्यापन कर लूंगा। हर कष्ट से उबर लूंगा। ऐसा कोई संयोग रचा।
सौ विचार उत्पन्न हुए ब्रह्मा ने सिंगारा तब देवों की आंखे खुली रही, सृष्टि को निहारा जब। अनोखी ,निराली अचम्भित करने वाली। सृष्टि की ऐसी रचना मोहित करने वाली । भीतर इसके कई किरदार, अपवाद ,विवाद बन गया मूल समाचार। धन ,द्वेष,आक्षेप मनुष्य में भेद रखा। सुरुआत ये अभी से नही, वेद पुराणों में भी इसका उल्लेख रखा। सो गया रचयिता न जाने कहा। छोड़ गया डोर सृष्टि का ऐसे ही चलेगी सदा।
व्यापार हृदय का पत्थर से, किया है मोम का वध कर के। नाप तोल के मिश्रण से। पुराना व्यवहार मिलना मेरा दुर्लभ है। न काश की कोई आस है। ज्वाला के रुख में, मैं मुड़ गया अब न कोई अभिलाष है। छल कपट का चोला पहन लिया अब वो पुराना मेरे भीतर न रहता है मन कि व्यथा क्या सुनाऊँ। सुख के छाती पे दुख बैठा है।
संजीवनी सा सींच लो। हमे खुद को खुद से खींच लो। बरस जाओ तुम मेघ से, लिपट जाओ इस रेत से फुल सा, मैं खिल जाऊंगा, बुलालो अपने परिवेश में। झूम के डगर मगर, जाऊंगा न इधर उधर। मुझपे हाथ रख कर बीछ लो। सुनो अपने नाम का आंगन मेरा लीप दो।