ये बात ज़हन में कैसे उतर गई है..
कि वो इतना कैसे बदल गई है..
पहले मैं नाराज़ नही हुआ करता था,
हालांकि अब एक बात मुझको लग गई है..
कब तक ढोएगें कंधे, रिश्ते कमज़ोर,
कागज़ों में जो थी सड़क वो भी धंस गई है..
जहां से तय थे उफ़ के कसीदे,
गुस्ताख़ी,उसके आगे भी मेरी नजर गई है..
मुकम्मल दर्मियां सब तय करके,
मैं अपने घर गया हूं वो अपने घर गई है..
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