मेरे अभिमानी पौरुष को, प्रेमी शीतलता देती हो|
मेरे दुर्गम रास्ते को, सरल सुगम कर देती हो ||
मेरे पुराने ख्यालों को, अपनी नूतनता देती हो |
मेरे उल्झे प्रश्नों का, सहज सा उतर देती हो||
दो लोगो की जोड़ी में, कोई कम कोई ज्यादा होता है|
हम एक गाड़ी के पहिए हैं, संतुलन ज़रूरी होता है||
पतवार भले मेरे हाथों, घर की मज़बूती तुम ही से है|
मेरा मन तन धन तेरा, सब का विश्वास तुम ही से है ||
पतझड़ को झेले पेड़ों पर, सावन की फुलवारी तुम|
ऊसर के तपती धरती पर, फ़सलों की हरियाली तुम||
मेरे चिन्तित मन में , शांति का जरिया हो तुम|
मैं ताला तू चाबी, मैं नदिया दरिया हो तुम ||
मेरी जीत का खातिर तूने, हारे कई मैदान प्रिये |
तू मेरे किरदार की शोभा, तू मेरा अभिमान प्रिये ||
पत्थर मन और बज्जर तन पर,चेतनता का ज्ञान प्रिये|
तू मेरी आँखों के आँसू, होंठो की मुस्कान प्रिये ||
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चुप सीने से तेरा लगना, घर भर में उठक पटक करना|
जब होता था तुझे बुखार,वो रात प्रहर का जग करना||
इन हाथों में झूला झूला, गोदी में सोया करता था|
माँ से जब डांट झपट होती, पापा को ढूंढा करताथा||
तू बचपन से ही चंचल था, अपनी मनवाया करता था |
डर कोई जब लगता था, पापा को बुलाया करता था||
मैं भी तो तेरे साथ बढा, मैं बूढ़ा हुआ, तू बड़ा हुआ|
मै पेड़ की जड़ जैसा फ़ैला, तू तने जैसा खड़ा हुआ ||
तेरे बचपन में हमने, अपना बचपन भी जिया है|
कुछ नई पुरानी यादो को, प्यार से हमने सिया है||
मन भारी सा रहता है, जब बात ना तुझसे होती है|
आँखे दरवाजे पर रहती, जब खबर ना तेरी होती है||
ये पता मुझे भी है बेटे, तू ख्याल हमारा करता है|
तुम पर प्यार लुटाने को, बाप का दिल भी करता है||
तू रहे सफल समृद्ध बने, आशीष सदा तेरे साथ रहे|
मेरा सब कुछ है तेरा, तू यहाँ रहे चाहे वहाँ रहे||-
भावों का समुंदर उमड़ रहा हो जैसे, अतीत सामने चल रहा हो जैसे |
सालों से बस एक सिलसिला था, सालों का वो सिलसिला थम रहा हो जैसे ||
यूँ तो एक मतलब के धागे से जुड़े थे, मतलब नहीं रहा, फिर भी जुड़े रहेंगे वैसे |
निकलना तो पड़ेगा ही, कब तक रहेंगे ऐसे, रास्ते जो पहले थे, अब वो नहीं रहेंगे वैसे ||
किरदार बदलते हैं, नुमाइश चलती रहती है जैसे |
जैसे चलता रहा अब तक, आगे भी चलता रहे वैसे ||
- Abhishabd-
बाप तो बाप होता है,
हज़ारों सवालों का एक जवाब होता है।
संभालता फिरता है घर को इधर-उधर,
पर खुद ही उलझनो में बेहिसाब होता है।
खुद से करता है अलग अपने कलेजे को,
और फ़िर हर पल उसकी फ़िक्र में रहता है।
सिखाता है अकेले मुस्किलो से लड़ना,
और हर मुश्किल में ढाल बनकर खड़ा होता है।-
क्यूँ मैं जकडता जाता हूँ ?
क्यूँ ना सहज हो पाता हूँ ?
मैं क्यूँ घबराता रहता हूँ ?
क्यूँ डर के साये में जीता हूँ ?
ये कैसी करालता कायरता ?
ये कैसा विस्मय व्यकुलता ?
अब रास नहीं आता है कुछ,
अब साज नहीं भाता है कुछ|
अब जलता मुझको रहने दो,
अब चलता मुझको रहने दो||-
ऐसा नहीं था, कि हमने सोचा नहीं था |
जाना तो था, पर यूं जाना नहीं था||
मुक्कमल हो तो रहीं थी हसरतें|
पड़ाव और भी थे, यहीं रुक जाना नहीं था ||-
जो मैं कर नहीं पाता, तुम सहज यूं हीं कर जाती हो,
दुनिया की भाग दौड़ हटा, हर रोज़ मुझे घर लाती हो ||-
शहर को आया था घर के वास्ते,
कितने मुश्किल हैं वापसी के रास्ते||
मेरी दिवाली की बाबू जी को याद तो आती होगी,
मेरे खिलोने, किताबें माँ जब सहज लगाती होगी||
दूर कहीं मेरा मन भी, वो, लम्हें बुनता और पिरोता है,
तन्हाई की महफ़िल में, सिसक सिसक तो होता है||
~ अभिशब्द-
जब एक साथ तुम रहते थे,उस सघन कुटुम्ब की छाया में|
घुट घुट के इस तम में, मुद्रा को कमाकर क्या पाया ?
घर से निकले थे तब तुम कुछ अल्हड से बेफिकरे थे |
दुनिया की इस खुदगर्ज़ी में, खुद को दफनाकर क्या पाया ?
वो बड़े वाहन वो बड़े भवन, क्या बुझा सकी अंदर की अगन |
गाँवों से तो भाग गए, शहरों में बसकर क्या पाया ?
वो चलचित्र वो देहदर्शन, क्या यही तुम्हारा अन्तर्मन |
मन तुच्छ होता चला गया, काया चमकाकर क्या पाया ?
निज स्वार्थ बस तुम आकर्षित थे, उन ऊँचे ऊँचे लक्ष्यों से |
तन खोया मन खोया, अपनों को भुलाकर क्या पाया ?
आराम से जीना चाहते थे, तुम अपना निलय बनाकर |
स्वस्वप्न विवश उस आँगन में, क्षण भर विश्राम कहाँ पाया ?
-अभिशब्द-
मस्त बहारें होंगी, आशीष की फुआरें होंगी |
अपनों की गलियां होंगी, नूतन कलिया होंगी||
शेष न रहे कोई द्वेष, मन को समझाना होगा |
सफर जो सुहाना होगा, सबको अपनाना होगा ||
छोटे मन से कोई बड़ा नहीं, मन को बड़ा बनाना होगा |
आएंगे फल डाल डाल पे, पेड़ों को झुक जाना होगा ||
नए पलों के आलिंगन से, अंधकार को छट जाना होगा |
समृद्धि सद्भाव समरसता का नव बर्ष मनाना होगा ||
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