अभिषेक चौबे  
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Joined 2 February 2018


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Joined 2 February 2018

ख़ुद को बेहिस बना चुका हूँ मैं
ग़म तुम्हारा भुला चुका हूँ मैं

ज़िंदगी मौत इक सी लगती है
इन की क़ीमत घटा चुका हूँ मैं

क्यूँ कोई लाश के क़रीब आए
अपना नक़्शा मिटा चुका हूँ मैं

रब्त साँसों का टूटना है फ़क़त
ख़ुद की मय्यत सजा चुका हूँ मैं

ज़िंदगी चार दिन की है .. होगी
अपना चौथा मना चुका हूँ मैं

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17 MAY 2022 AT 20:11

इक अरसे बाद मिला है कोई सवाल न पूछ
हमें गले से लगा ले हमारा हाल न पूछ

मैं ख़ुद से लड़ के बिखरता हूँ और सँवरता भी हूँ
तमाशा देख ! पर इस में मेरा कमाल न पूछ

~ Abhishek Choubey ‘ Vimukt ‘

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22 APR 2022 AT 20:31

यूँ तो मैं ज़ब्त की हर हद से गुज़र जाऊँगा
पर तेरे सामने आने पे बिखर जाऊँगा

अब किसी सम्त कोई रस्ता नज़र आता नहीं
इक नया रस्ता बनाऊँगा , जिधर जाऊँगा

गर क़रीब आने की ख़्वाहिश है तो ये ध्यान रहे
मुझको मालूम नहीं कब मैं मुकर जाऊँगा

फिर नया इश्क़ , नया हिज्र , नया रंज-ए-सफ़र
अपनी तस्वीर कई रंगों से भर जाऊँगा

सुब्ह से शाम वही मयकदा वो यादें तमाम
एक दिन ख़ाक हो जाऊँगा मैं मर जाऊँगा

सब की नज़रों में नज़र आता हूँ ठुकराया हुआ
खुद को इस हाल में ले कर मैं किधर जाऊँगा

~ अभिषेक चौबे ‘ विमुक्त ‘

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20 MAR 2019 AT 11:09

ज़रूरत पे हमको पुकारा गया है
वगरना नज़र से उतारा गया है

शिकायत है यूँ हिज्र को वस्ल से अब
उसे क्यूँ ज़ियादा गुज़ारा गया है

उठाना नहीं ज़िक्र अब तुम वफ़ा का
इसी खेल में दिल ये हारा गया है

कभी पूछिये बोझ का वज़्न दिल से
इसी पर तो सारा का सारा गया है

तिरे यूँ न पढ़ने पे लगता है जानाँ
हमारे ख़यालों को मारा गया है

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ख़यालों में तिरे उलझा हुआ है
वो शायद हिज्र में बहका हुआ है

लिए बाहों में इक अर्सा हुआ है
बदन तो अब तलक महका हुआ है

भला उम्मीद क्यूँ रक्खे किसी से
वो जब ख़ुद से ही अब रूठा हुआ है

सहर से शाम तक ख़ामोश रहते
मिरा ये दिल कहीं अटका हुआ है

लो हमने भी गुज़ारा कर लिया , जब
लकीरों में यही लिक्खा हुआ है

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12 FEB 2019 AT 18:41

चाह कर भी कभी मुस्कुराता नहीं
ख़ैर ये हिज्र में लाज़मी है सनम

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13 JAN 2019 AT 21:24

ए मिरे दिल-ए-बे-क़रार तुझे सब्र करना होगा
कर ले तू थोड़ा इंतिज़ार तुझे सब्र करना होगा

वो परिंदा कैद है अपनी ही हालातों के क़फ़स में
होगा उस परिंदे का दीदार तुझे सब्र करना होगा

माना तू भी है परेशान , पर वो भी है ज़रा मजबूर
रख इश्क़ पर अपने ए'तिबार तुझे सब्र करना होगा

है अंधेरा चारों तरफ़ , पर आएगा जल्द आफ़्ताब
बीत जाएगी शब-ए-इंतिज़ार तुझे सब्र करना होगा

सही वक़्त आने पर ही सब ठीक होगा "विमुक्त"
कर के दिल को जाँ-निसार तुझे सब्र करना होगा

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11 JAN 2019 AT 16:45

आग को पानी से मिलाना क्यूँ है
तु बता तुझे सामने आना क्यूँ है

तड़प तो तुम भी रही हो जानाँ
फिर ज़बाँ पर तिरे बहाना क्यूँ है

रेत पर लिख आएँ हम तिरा नाम
पर लहरों को उन्हें मिटाना क्यूँ है

ये तूफ़ाँ , ये बलाएँ आती रहेंगी
तुम्हे जीते-जी मर जाना क्यूँ है

इक रोज़ पूरे होंगे सारे ख़्वाब मिरे
ऐसे सरफिरे ख़्वाब बसाना क्यूँ है

'विमुक्त' सोया है अपनी दुनिया में
उसे सोने दो , उसे जगाना क्यूँ है

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जो सिर्फ़ ज़बाँ से इज़हार करता है
वो ख़ाक किसी से प्यार करता है

हवस में हड़बड़ाहट होती है सनम
प्यार तो हमेशा इंतिज़ार करता है

वो सरफिरा शख़्स तिरी तलाश में
इक अनजान सहरा पार करता है

वो क़रीब न हो तो उदास हो जाए
यही ख़ता दिल बार बार करता है

सब को गुलाब पसंद है "विमुक्त"
यहाँ काटों से कौन प्यार करता है

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31 DEC 2018 AT 12:11

इक फ़क़त उन पर ही शक था मेरा
आख़िर जिस जिस पर हक था मेरा

मिरे स्वेटर को उसने सीने से लगाया
शायद बाक़ी उस में महक था मेरा

अब मैं उन गलियों से गुज़रता नहीं
कभी जो अपना सा सड़क था मेरा

ये डर सोने नहीं देता कि बिछड़ न
जाए मुझ से जो अब तलक था मेरा

लबों पर लब रख कर उसने "विमुक्त"
दूर कर दिया जो भी झिझक था मेरा

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