QUOTES ON #हास्य

#हास्य quotes

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23 JUL 2019 AT 8:45

हाय, न बूढ़ा मुझे कहो तुम! 
शब्दकोश में प्रिये, और भी
बहुत गालियां मिल जाएंगी 
जो चाहे सो कहो, मगर तुम
मेरी उमर की डोर गहो तुम! 
हाय, न बूढ़ा मुझे कहो तुम!

वर्ष हजारों हुए राम के , अब तक शेव नहीं आई है! 
कृष्णचंद्र की किसी मूर्ति में, तुमने मूंछ कहीं पाई है?
वर्ष चौहत्तर के होकर भी, नेहरू कल तक तने हुए थे, 
साठ साल के लालबहादुर, देखा गुटका बने हुए थे।
मैं तो इन सबसे छोटा हूँ, क्यों मुझको बूढ़ा बतलातीं?
तुम करतीं परिहास, मगर मेरी छाती तो बैठी जाती। 

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21 JUL 2019 AT 15:22

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।

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24 MAR 2019 AT 18:31

"इस उल्लू को गाली देनी भी नहीं आती"

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24 MAR 2019 AT 0:43

मुल्ला जी को बीवी का जवाब

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22 MAR 2019 AT 15:21

आज पढ़ते हैं अकबर इलाहाबादी और गौहर जान की मुलाक़ात का मज़ेदार क़िस्सा

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30 MAR 2019 AT 17:55

घर में पत्नी के आते ही एक ओर मां, बहन और भाभी ने मुझे खुलेआम जोरू का गुलाम कहना आरंभ कर दिया है। तो भी मुझे यह तसल्ली नहीं कि कम-से-कम घरवालों की इस घोषणा से श्रीमतीजी को तो प्रसन्नता होगी ही। उलटा उनका आरोप यह है कि मैं मां, बहनों और भावजों के सामने भीगी बिल्ली बन जाता हूं और जैसा कि मुझे करना चाहिए, उनकी तरफदारी नहीं करता। मां कहती है कि लड़का हाथ से निकल गया, बहन कहती है भाभी ने भाई की चोटी कतर ली। भाभी कहती है-देवरानी क्या आई, लाला तो बदल ही गए। लेकिन पत्नी का कहना है कि तुम दूध पीते बच्चे तो नहीं, जो अभी भी तुम्हें मां के आंचल की ओट चाहिए। बताइए, मैं किसकी कहूं ? किसका भला बनूं ? किसका बुरा बनूं ? वैसे तो सभी नारियां शास्त्रों की दृष्टि से पूजनीय हैं, मगर मेरा तो इस जाति ने नाक में दम कर रखा है। 

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26 JUN 2019 AT 12:21

"जब खरगोश सो कर उठा,
उसने देखा कि कछुआ आगे
बढ़ गया है,
उसके हारने और बदनामी
के स्पष्ट आसार हैं।
खरगोश ने तुरंत
आपातकाल
घोषित कर दिया"

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19 APR 2019 AT 20:28

प्रिय ठलुआ-वृंद!

मनुष्‍य-शरीर आलस्‍य के लिए ही बना है। यदि ऐसा न होता, तो मानव-शिशु भी जन्‍म से मृग-शावक की भांति छलांगें मारने लगता, किंतु प्रकृति की शिक्षा को कौन मानता है। 

निद्रा का सुख समाधि-सुख से अधिक है, किंतु लोग उस सुख को अनुभूत करने में बाधा डाला करते हैं। कहते हैं कि सवेरे उठा करो, क्‍योंकि चिडियां और जानवर सवेरे उठते हैं; किंतु यह नहीं जानते कि वे तो जानवर हैं और हम मनुष्‍य हैं। क्‍या हमारी इतनी भी विशेषता नहीं कि सुख की नींद सो सकें! कहां शय्या का स्‍वर्गीय सुख और कहां बाहर की धूप और हवा का असह्य कष्‍ट!

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15 MAR 2019 AT 13:38

झूठ बोलना भी एक कला है-एक महान आर्ट ! इसकी महानता के आगे चित्रकारी के रंग फीके हैं, संगीत का स्वर बेसुरा है और कविता के छंद निरर्थक हैं। 

"झूठ बराबर तप नहीं,सांच बराबर पाप ।
जाके हिरदे झूठ है, ताके हिरदै आप ॥"

दरअसल दुनिया में और है भी क्या ? खाने को तीन छंटाक गेहूं, पहनने को तीन गज़ कपड़ा और बोलने को जी भर झूठ ! 

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12 MAR 2019 AT 18:51

कविताएं छपती नहीं। कहानियां खपती नहीं। उपन्यास का प्लॉट नहीं। कोई परिचर्चा एलॉट नहीं। तब या तो लिखो कव्वाली या बैठे-ठाले बको गाली। गाली भी व्यंग्य का एक प्रकार है। नये साहित्य में उसी की भरमार है। पेशे से टीचर, लिखने लगे फीचर। जब चढ़ा शनीचर। होगए फटीचर। पूछने लगे अब कैसा लिखता हूं। अब लाला की उधार का हिसाब नहीं, व्यंग्य लिखता हूं। 

विद्यालय का नया नाम रोमांसालय है। सयानी लड़कियां यहां इसलिए आती हैं कि वे अधिक-से-अधिक माता-पिताओं की नज़रों से दूर रहें। लड़के इसलिए आते हैं कि 'एलएसडी' के नशे में चूर रहें। अध्यापक पुस्तकें नहीं पढ़ाते, उन्हें यथार्थ जीवन जीना सिखाते हैं। शकुंतला से लेकर उर्वशी तक का प्रेक्टीकल कराते हैं। सिनेमा कुंज-गृह और रेस्तरां है संकेत-स्थल। हिन्दी भी कोई ज़ुबान है, अंग्रेजी भाषा और साहित्य ही है निर्मल गंगाजल। 


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