घर की मुंडेर पर जो खिल रहा है गुलाब,
कभी रोपा था मैंने, और सींचा था तुमने,
याद रखियेगा।
दहलीज़ पार करते ही जो ताखा है न,
उसपे रख दिया करते थे, दिन भर की थकान और दर्द,
याद रखियेगा।
अंदर खिलखिलाती रहती थी हमारी अल्हड़ मुस्कुराहटें,
खिड़कियाँ गवाह होती थी और ख़बर प्रसारक भी।
याद रखियेगा।
नज़र न लग जाये कहीं हमारी खुशियों में,
याद रखियेगा।
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