झाँकती हुई लड़की से नजर थी टकरायी न मैं मुस्कुराया न वो मुस्कुरायी न उसने नजर हटायी न मैंने नजर झुकायी पर रुकी नहीं थी बस खड़ा रहा मैं बेबस फिर न दिखा वो चेहरा जो अब भी जहन में है ठहरा
शहर के ओर जाते जाते मुझे मेरा गांव नज़र आता है फिर से ये आंसू आँखों मे ले आता है
बस से जाते जाते आंख भर आती है मम्मी तुझसे दूर होना बड़ा ही रुलाती है पापा की याद भाई का प्यार सोच कर दिल मे सिहरन सी आ जाती है पता नही किस्मत क्यों हमे एक दूजे से दूर कर जाती है
बस की खिड़की से दिखता था जो समन्दर आज भी याद है बचपन का वो मंजर स्कूल के बस से हर साल वो पिकनिक पे जाना हर एक शरारत पे टीचरों से डाँट खाना लौटते हुए वो सूरज का डूब जाना देखने को नज़ारे वो आपस में लड़ जाना दौड़ता हूँ बस में पर चारों ओर अब बस सड़कें बैठता हूं खिड़की के पास पर देखता नहीं नज़र भरके
बस की खिड़की पर बैठना इस बार तो बच्चों की तरह बैठना और झांकना इन खिड़कियों से बच्चन की यादों के साथ तो तुम्हारा बचपन मुस्कुराता मिलेगा इन बस की खिड़कियों के बाहर इस बार देखना सब कुछ अपने बचपन की नज़रों से और सारे नज़ारे क़ैद कर लेना अपनी आँखों में क्यों की आँखों से अच्छा आज तक कोई कैमरा नहीं बना है जो पलक झपकते आज की तस्वीर को बचपन की उस तस्वीरों से मिला दे जो खींचा था तुम ने बच्पन में कभी
बस जब पहाड़ों की सरपीली सड़कों से गुजरती है तो उसका रोमांच कुछ अलग ही होता है।ऐसा लगता है कि बस और हम आगे की ओर भाग रहे हैं तथा पेड़-पौधे, खेत-खलिहान आदि पीछे की ओर दौड़ लगा रहे हैं।जैसे -जैसे बस मोड़ों को पार करती है, झटके से ये रोमांच भी धरातल से टकराता है।यात्री पेण्डुलम की तरह पूरी यात्रा के दौरान झूलते रहते हैं।मगर इसका भी अपना ही मजा है। अगर आपने पहाड़ों पर बस से यात्रा नहीं की तो आप एक रोमांचक यात्रा से वंचित रह गए हैं।इसलिए एक बार इस रोमांच का आनंद जरूर लीजिए।
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