मौसम की गुस्ताख़ी या मुझे कोई नशा छाया,
आज आँखों पे मेरी अजीब ख़ुमार आया है!
उड़ा के देख लिया मैंने हर बार वो परिन्दा ,
स्नेह के ख़ातिर ही जो गगन छोड़ आया है!
करके अच्छाई मैंने यूँ बहती हुई दरिया में,
ख़ुद को हमेशा आईने में ही तन्हा पाया है!
घूमते रह जाते है कुछ लोग यहाँ मर कर ,
महसूस हो अपना न ही ऐसा कोई साया है!
उठने लगे कितने सवाल अब जहन में मेरे,
क्या कभी कोईं मुसाफ़िर ज़बाब लाया है!
हम शय माँगते रहें उसी से सलामती का ,
जिसने बनके शाकाहारी माँस ही खाया है!
कर ले मुझपे सितम तू फ़िर से सितमगर ,
मन धूल समान और मिट्टी होती काया है!
कुचल देगा एक दिन तेरा अहम ही तुझे ,
समझते नही इंसान यहाँ सब कुछ तो माया है!!
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