सुहाग की चादर उतरते ही जिम्मेदारी की चादर ओढ़ लेती है ,
बीती यादों के सहारे अकेलेपन को ढोती है। कुछ औरतें ऐसी भी होती हैं ।
न रोने के लिए कंधा ,ना ही खुशियों के लिए कोई बाहें ।कुछ पड़ गया है आंख में कह कर आंसुओं को छुपाती हैं।
कुछ औरतें ऐसी भी होती हैं।
दिल के गहरे घाव पर नमक रखकर ,आंखों में रेत भर लेती है ।
मर के भी जाने वाले की विरासत को सीचती है। कुछ औरतें ऐसी भी होती है।
खुद बेड़ियों में जकड़ी, अपनी संतति के लिए रूढ़ियों को तोड़ती है। परंपराओं के कुछ नुकीले कांटों से, लहूलुहान उंगली से नए सपने बुनती हैं।
कुछ औरते ऐसी भी होती हैं।
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