ख़लिश भी वही कसक भी वही..
तबाही भी वही तलब भी वही..
छूते है जब-जब लब किसी औऱ के उसे, तो जलें भी ये जी मेरा ही,,
छीन कर छू लूँ फ़िर से उसे,कि कुछ देर दफ़ा भी हो ये बेहाली मेरी ही,,
ज़माने का डर लिये चुपके से थाम लूँ फिर उसे,ख़ुद को खो दूँ मैं उसमे फिर से कहीँ,,
वादों की निबाही छोड़ कस लिया है फ़िर से उसे, कि होश में रहने का अब मन ही नहीं,
मत सता तू यूँ अब नशा है नाश कर यहीँ,कि अब और तलब गवाँरा भी नहीं,
ख़लिश भी वही कसक भी वही..
तबाही भी वही तलब भी वही..
चूमकर सिगरेट वहीं , फिर कुछ बिखर कर कुछ तो निखर जाऊँ मैं, गलत ही सही...
-