किस तरह घर से दूर बीत रही,हाल-ए-जिंदगी घर नहीं बताता,
हँस देता हूँ फोन पर,अपना दर्द नहीं बताता
सबको बहला देता हूँ मैं बातों से अपनी
फ़क़त एक माँ है जिससे कुछ छुप नही पाता
वक़्त पर नही मिलती थी तो घर सिर पर था उठाता
अब दो वक्त की खाकर,दिन हूँ अपना बिताता
सज़ा खूब दे रहा है वक़्त, वक़्त बर्बाद करने की,
अब तो नींद में भी ख्याब, आवारगी का नही आता
नासमझ "मुनीष" समझदार इतना हो गया
कि, रोता है पर आंसू नहीं बहाता।
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