बिन परों के, घोंसलों से तुम नहीं निकलो कभी
आधी रातों को घरों से तुम नहीं निकलो कभी
कब कहाँ इंसानियत कुचली घसीटी जाए फिर
इसलिए वीरानियों से तुम नहीं निकलो कभी
हर किसी की तय हैं जिसमें उसको रहना चाहिए
ख़्वाह-मख़ाह अपनी हदों से तुम नहीं निकलो कभी
भूले बिसरे ख़्वाबों के आसेब रहते हैं वहाँ
यादों के उन खंडरों से तुम नहीं निकलो कभी
लौटना हो जाएगा मुश्किल बड़ा सच कहता हूँ
ख़वाहिशों के जंगलों से तुम नहीं निकलो कभी
धीरे धीरे बढ़ते हैं फिर तय कभी होते नहीं
अपनों से यूँ फ़ासलों से तुम नहीं निकलो कभी
रिंद हो जो तुम 'असर' तो एक ये वादा करो
होश में फिर मय-कदों से तुम नहीं निकलो कभी
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