इंतेज़ार
वक़्त पिघल कर
पारे की इक बूँद बना है
और इस बूँद के अंदर मैं हूँ
भाग रहा हूँ
पारा यूँ ही अपनी जगह पर लुढ़क रहा है
मेरे अगले पाँव पे माज़ी
मेरे पिछले पाँव पे फ़रदा
इन दोनों के बीच रबर के जैसा मेरा हाल खिंचा है
मेरे चारों जानिब घड़ियाँ लटक रही हैं
एक ही पल में लेट भी हूँ मैं, वक़्त पे भी हूँ
और वक़्त से पहले भी हूँ
सोच रहा हूँ, वक़्त का मालिक
गोल्फ़ की छड़ी ले कर आये
वक़्त की बूँद को गेंद समझ ले
और इक लंबा शॉट लगाए
ऐसा शॉट के गेंद वक़्त की
ब्लैकहोल में 'इन' हो जाये...
वक़्त का पारा, वो ग़ुब्बारा
ब्लैक होल में छोड़के जब मैं
दूसरी जानिब बाहर आऊँ
तुमको पाऊँ।
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