टूटी हुई परिंदा थी मैं उड़ने की अब भी चाहत थी मुझमें
आकाश को देखकर, पंख मेरे फड़फड़ाते थे
थोड़ी-सी ऊंचाई पर उड़ कर पंख मेरे जवाब दे जाते थे
पर हौसला कभी ना हारी मै खुद ना छोड़ी मैं विश्वास,
रोज करती थी में प्रयास मन में था एक आस
उड़ पाऊंगी मैं भी एक दिन अगर करती रही प्रयास
वक्त के साथ मेरी पंखों में भी थोड़ा जान आया
आसमा को मैंने खुद के समीप पाया
रोज के मुकाबले अब मैं थोड़ा ज्यादा उड़ती थी
रोज के मुकाबले अब मैं प्रयास दुगुना करती थी
वक्त ने मुझे मेरा आसमा लौट आया
टूटे हुए परिंदे को वक्त ने फिर से उड़ना सिखाया।
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