कमी तब भी सुकुन की होती है उल्फ़त की पट्टी आंखों से उतार कर देखी है ख़्वाहिश तो पूरी हवस की होती है हमने भी एक रात गुज़ार कर देखी है उन जिस्म-ओ-साद सुकुन की आग़ोश में कवि चैन कहां से पायेगा सुकुन तो प्रसाद हिज़्र में भी होता है वस्ल की ख्वाहिशें हार कर जो देखी है।
दर्द को झेलने के तरीके दिए जाए मैं जिंदा हूँ मुझे जिंदा रहने दिया जाए.....। मैं क्या हूँ क्यूँ हूँ ये लड़ाई तो रोज लड़ती हूँ ऐ ज़िंदगी !अब मुझे थोड़ा सुकून दिया जाए ...।