आदि हूँ मैं, अंत हूँ।
अंतरिक्ष सा अनंत हूँ।
ठगों की भी बस्ती में,
मैं जैसे कोई संत हूँ।
सूर्य सी तपिश है मेरी,
चाँद सा मैं नम्र हूँ।
तुम्हारे हर एक सवाल का,
मैं जैसे कोई व्यंग्य हूँ।
आवारा एक बादल की तरह,
हाथी सा मदमस्त हूँ।
पहाड़ कोई सामने,
तो चींटी का प्रयत्न हूँ।
अपने कर्मक्षेत्र में,
सिंह सा प्रशस्त हूँ।
अमावस की काली रात में,
मैं रौशनी की जंग हूँ।
अमृत के संसर्ग में,
हलाहल का मैं प्रबंध हूँ।
आदि हूँ मैं, अंत हूँ।
अंतरिक्ष सा अनंत हूँ।
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