और वो शर्मीली लडकी अब बेझिझक बिना शर्म के लिखती है खुलकर आखिर कागज को कहाँ खबर है स्याही मे भरे हुए शब्द सब उसके चरित्र ने गढे है वो रंग वो छंद कविता का हर एक अंग खुद जो रचती है हाँ वो चंद्र की उपासना करती है वो जो हर रात को आसमान से बात करती है वो जो लोगो के खामोश होंटो के नीचे की बात पढती है वो जो औरों के मन के दर्दों को भी समझती है वो जो गिर कर उठती है तो समुद्र मे भी लहरे उमंग की उठने लगती है वो रोशनी है खुद मे ही और उसके लेखन मे प्रकाश है निहित
तुम यूँ अपनाना मुझे जैसे प्रकाश घुल जाये प्रकाश में अंधकार लीन हो जाये अंधकार में जल मिल जाये जल में यूँ रक्षा करना जैसे छाल करे है वृक्ष की और मैं, हर्षित हो निखर जाऊँ जैसे आकाश निखर जाये आभा से उषा से रंगों से कलरव से ये हमारे प्रेम का सूर्योदय होगा!!!
जल जाए जिसमें कलुष भेद , उज्जवल प्रकाश से हो अभेद प्रभुता अक्षुण्ण रहे अपनी , गाते स्वर सारे धर्म,वेद ।। प्रकृति की माला सजाए हम । अब ऐसा दीप जलाए हम !