आज फिर इक रात,
वो बाहर वाली बालकनी में गुजारी मैंने . . .
हां अकेला ही बैठा था वहां,
हमेशा की तरह,
मैं, मेरा अकेलापन, मेरे कुछ सवाल,
और वो चांद. . .
हां, वही वाला चांद. . .
शायद हंस रहा था,
थोड़ा इतरा रहा था,
थोड़ा मुस्कुरा और चिढ़ा भी रहा था वो,
आज जलन जो नहीं थी उसे मेरे नसीब से,
चांदनी थी ना उसके साथ. . .
और तुम्हारा मैं. . .
हां, तुम्हारा ही मैं,
आज बस अकेला था . .।।
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