जब खुद के लिए लिखना चाहा,
कोई कागज़ ही ना मिला ग़ालिब!
जज़्बातों को शब्दों मे पिरोने का,
कोई साधन ही ना मिला ग़ालिब!
हर बार चलती रही मेरी कलम,
इस पूरे जहान के लिए ग़ालिब!
ना सोचा मैंने कभी लिखते हुए,
किसी अंजाम के लिए ग़ालिब!
स्याही और कलम मे छिपे है,
मेरे दिल के अरमान ग़ालिब!
बिना लिखें ही कर दिया मुझे,
इस जहान ने बदनाम ग़ालिब!
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