उम्रदराज़ होने लगे हैं , कुछ अब अपने ख़्वाब भी ,
तलब बाक़ी ,ख्वाहिश मुकम्मिल होने के बाद भी !
आरज़ुओं के ढेर पर , आग अमूमन लगने को है ,
हाथ बस बढ़े नहीं है , चिंगारी लेने के बाद भी !
क्या करना था,और क्या करते रहे उम्र भर हम भी ,
नींदों में ही रहे शायद , जाग जाने के बाद भी !
फ़ुर्सत मय्यसर ना हो पायी , मेरे शहर को कभी ,
नींद ना आयी इसे कभी ,रात हो जाने के बाद भी !
आग बरसती है अब ,गर्मियों के मौसम में यहाँ भी ,
छाँव ढूँढतें हैं लोग अब,पेड़ कट जाने के बाद भी !
भरोसे की शक्ल इख़्तियार कर, आता है धोखा ही ,
लोग पलट जाते हैं यहाँ , इत्मीनान आने के बाद भी !
ढूँढ रहा हूँ ख़ुद को मैं , दूसरों के प्रतिबिम्बों में ,
पहचाना नहीं ख़ुद को,आईना देख लेने के बाद भी !!
विवेक शर्मा
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