देखकर सूरज की गर्मी अब मैं ढलना चाहता हूं।
वक्त नहीं है साथ मेरे, वक्त को बदलना चाहता हूं।
कभी फुर्सत मिले तो मेरे साथ भी एक लम्हा बिता लेना,
इंसान हूं इंसान को समझना चाहता हूं।
देख कर चांद की शीतलता को अब मैं उगना चाहता हूं।
समझ में आता नहीं इंसान की ये कैसा प्राणी है।
बदन की कैद से अब मैं बाहर निकलना चाहता हूं।
इंसान हूं इंसान को समझना चाहता हूं।
देखकर हौसलों को मेरे कभी-कभी सूरज भी शर्मा जाता है।
मैं वह शख्स हूं जो सब कुछ बदलना चाहता हूं।
रंजीश शुरू हुई थी जिस चौखट से वहीं पर खत्म करना चाहता हूं।
इंसान हूं इंसान को समझना चाहता हूं।
मुसाफिर हूं अनजान रास्तों का, पता ना किसी गैर से अब मैं पूछना चाहता हूं।
कभी तितली तो कभी भंवरा बनकर मैं अब फूलों पर मंडराना चाहता हूं।
यह बताने की कोशिश ना कर मुझे की कैसे चलना है मुझे कर्तव्य पथ पर,
मुसाफिर हूं कभी इधर तो कभी उधर भी मैं चलना जानता हूं।
कि थक हार कर बैठने वालों में से नहीं मैं,
हर रोज की शुरुआत अब मैं एक नई ऊर्जा से करना चाहता हूं।
हौसला देखकर मेरा समंदर भी बोल पड़ता है,
किस किस्म के इंसान हो 'राज' तुमको देखकर मैं अब खुद को बदलना चाहता हूं।
-rajdhar dubey
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